-शीराज़ क़ुरैशी
हाल ही में महमूद मदनी द्वारा दिए गए बयान ने एक बार फिर “वंदे मातरम्” के संदर्भ में मुसलमानों को विवादों में घेरने की कोशिश की है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक ऐसे विषय को, जो राष्ट्रगौरव और सांस्कृतिक सम्मान से संबंधित है, धार्मिक संकीर्णता के चश्मे से देखने का प्रयास किया जाता है। मुसलमानों को बार-बार यह समझाया जाता है कि वे राष्ट्रगीत या मातृभूमि के सम्मान से दूर रहें। इस लेख का उद्देश्य इस गलतफहमी को दूर करना और इस्लाम व भारतीयता की वास्तविक शिक्षाओं को सामने लाना है।
महमूद मदनी का बयान न तो इस्लामी शिक्षाओं के अनुकूल है और न ही भारत की बहुलतावादी परंपरा के। वंदे मातरम् कोई धार्मिक पूजा नहीं, बल्कि मातृभूमि को सम्मान देने का खूबसूरत और ऐतिहासिक तरीका है। धर्मशास्त्र या फिक़्ह में ऐसा कोई सिद्धांत नहीं जो यह कहता हो कि किसी देश, उसकी मिट्टी या मातृभूमि का सम्मान करना हराम है। इस्लाम इंसान को ज़मीन की कद्र करना, शांति से जीना और समाज में अमन कायम रखना सिखाता है—न कि उसे वतन से कटने की सलाह देता है।
क़ुरान की रोशनी में देखें तो वतन से मोहब्बत को इस्लाम ने न केवल स्वीकार किया है, बल्कि उसे इंसानी फितरत का हिस्सा माना है। पैग़ंबर ﷺ ने मक्का को छोड़ते समय उससे मोहब्बत व्यक्त करते हुए कहा था—“तू मुझे अल्लाह की तमाम ज़मीनों से प्यारी है।” यह वतन-प्रेम का वह प्रमाण है जिसे आज की बहसों में नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। क़ुरान यह भी कहता है कि “अल्लाह फ़साद करने वालों को पसंद नहीं करता।” इसलिए समाज में अनावश्यक विवाद और नफरत फैलाने वाले बयान इस्लामी सिद्धांतों से मेल नहीं खाते।
यह भी समझना ज़रूरी है कि “वंदे मातरम्” का अर्थ किसी देवी-देवता की उपासना नहीं, बल्कि मातृभूमि को प्रणाम करना है। जैसे माँ का सम्मान करना इबादत नहीं होता, वैसे ही मातृभूमि के सम्मान को shirk या haram कहना इस्लामी परंपरा की गलत व्याख्या है। देश दुनिया के मुस्लिम राष्ट्र—तुर्की, इंडोनेशिया, सऊदी अरब—सभी अपने-अपने राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान करते हैं। किसी मुल्क में राष्ट्रगीत या झंडे के सम्मान को धर्म-विरोधी नहीं माना जाता।
भारत के मुसलमानों ने स्वतंत्रता संग्राम में “वंदे मातरम्” को गले लगाया था। अशफ़ाक़ उल्लाह ख़ान, मौलाना आज़ाद, खान अब्दुल गफ्फ़ार ख़ान, मेरे दादा हाजी ज़हूर मोहम्मद क़ुरैशी ,मौलाना मदनी के पुरखों तक ने देश की आज़ादी की लड़ाई में इस गीत को प्रेरणा के रूप में स्वीकार किया। आज जब महमूद मदनी जैसे लोग मुसलमानों को इससे दूर रहने की हिदायत देते हैं, तो यह इतिहास, इस्लामी ज्ञान और राष्ट्रीय भावना तीनों की अवमानना है।
मुसलमानों का ईमान वंदे मातरम् से नहीं जाता; ईमान को नुकसान पहुँचाते हैं आतंकवाद, हिंसा, नफरत और फ़साद जैसे कर्म। क़ुरान स्पष्ट कहता है—“जिसने एक निर्दोष इंसान को मारा, उसने पूरी मानवता को मारा।” इस्लाम का संदेश अमन और इंसाफ है, न कि कट्टरता और दूरी पैदा करना। इसलिए मुसलमानों को ऐसे बयान देने वालों से सावधान रहना चाहिए जो उन्हें मुख्यधारा से अलग करने की राजनीति कर रहे हैं।
आज भारत में मुसलमानों की असली ज़रूरत राष्ट्रवाद और धर्मनिष्ठा के बीच पुल बनाने की है, न कि दूरी बढ़ाने वालों की भाषा अपनाने की। एक भारतीय मुसलमान अपनी पहचान पर गर्व कर सकता है—मुसलमान होकर भी भारतीय, और भारतीय होकर भी मुसलमान। इन दोनों पहचान में कोई विरोधाभास नहीं है। वतन का सम्मान हर भारतीय का संवैधानिक और नैतिक कर्तव्य है, और इस्लामी परंपरा भी इसे पूर्ण समर्थन देती है।
महमूद मदनी का बयान न केवल अनुचित है बल्कि मुस्लिम समुदाय को अनावश्यक संदेह के घेरे में डालने वाला है। भारत की एकता, सामाजिक सौहार्द और राष्ट्रीय भावनाओं का सम्मान हर नागरिक का उत्तरदायित्व है। इसलिए यह समय है कि मुसलमान ऐसे बयानों से ऊपर उठें और भारत की मिट्टी के प्रति अपनी वफ़ादारी और सम्मान को खुलकर व्यक्त करें।
मेरे विचार में यही है:
“वंदे मातरम् गाने या उसका सम्मान करने से मुसलमान का ईमान नहीं जाता; बल्कि देश से मोहब्बत करना इस्लाम की असल शिक्षा है। नुकसान पहुंचाते हैं केवल वे बयान जो हमें वतन से दूर करने की कोशिश करते हैं।”
वंदे मातरम्! जय हिन्द !