डॉ. भूपेन्द्र कुमार सुल्लेरे
“राष्ट्र निर्माण में युवाओं का योगदान” माननीय सरसंघचालक डॉ. मोहनराव भागवत द्वारा लिखित एक प्रेरक और विचारोत्तेजक कृति है, जिसमें उन्होंने भारतीय राष्ट्र के भविष्य के शिल्पी युवा वर्ग की भूमिका को केंद्रीय विषय बनाते हुए भारत के सांस्कृतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक और राष्ट्रीय पुनर्जागरण के आयामों पर गहन विचार किया है। यह पुस्तक केवल एक विचार-दर्शन नहीं, बल्कि एक आह्वान है युवा शक्ति को जागृत करने, दिशा देने और राष्ट्र निर्माण में सक्रिय भागीदारी हेतु प्रेरित करने का।
भारत का भविष्य उसके युवाओं के हाथों में है, यह बात अनेक बार कही गई है, परंतु डॉ. मोहन भागवत की यह कृति “राष्ट्र निर्माण में युवाओं का योगदान” इस सत्य को केवल कहती नहीं, बल्कि उसे जीने की दिशा भी देती है। यह पुस्तक युवाओं को केवल प्रेरित नहीं करती, बल्कि यह भी बताती है कि उनका जीवन राष्ट्र निर्माण की सबसे सशक्त धुरी कैसे बन सकता है।
राष्ट्र एक जीवंत सत्ता है
डॉ. भागवत इस कृति की शुरुआत एक गहरी बात से करते हैं कि “राष्ट्र कोई भौगोलिक सीमा नहीं, वह एक जीवित सत्ता है, जो हमारी संस्कृति, परंपरा और चेतना से निर्मित होती है।”
इस दृष्टिकोण से वे बताते हैं कि युवा केवल नागरिक नहीं, बल्कि राष्ट्र की धड़कन हैं। वे समाज की दिशा तय करने वाले नेतृत्वकर्ता हैं, जिनमें भविष्य की संपूर्ण संभावनाएँ निहित हैं।
लेखक का मानना है कि किसी भी राष्ट्र का निर्माण केवल तकनीकी ज्ञान या भौतिक विकास से नहीं, बल्कि संस्कार और चरित्र से होता है। वे युवाओं से आह्वान करते हैं कि वे आधुनिकता को अपनाएँ, परंतु अपने स्वत्व और सांस्कृतिक मूल्यों को विस्मृत न करें।
उनके शब्दों में “संस्कार ही राष्ट्र की आत्मा हैं, इन्हें छोड़कर हम किसी भी क्षेत्र में स्थायी प्रगति नहीं कर सकते।”
इस प्रकार यह पुस्तक आधुनिकता और परंपरा के बीच संतुलन का सेतु बन जाती है।
राष्ट्रीयता की भारतीय परिभाषा
इस पुस्तक की एक विशेषता यह है कि इसमें राष्ट्रीयता की भारतीय व्याख्या को स्पष्ट किया गया है। पश्चिमी दृष्टि से राष्ट्रीयता सत्ता और सीमाओं पर आधारित होती है, जबकि भारत में यह ‘एकात्म मानव दृष्टि’ पर टिकी है।
यह पुस्तक बताती है कि भारत का राष्ट्रवाद समरसता, कर्तव्य और सांस्कृतिक एकता का जीवंत रूप है जो किसी एक वर्ग, धर्म या भाषा की सीमा में बंधा नहीं है।
संगठन और सेवा : परिवर्तन का आधार
पुस्तक में डॉ. भागवत युवाओं को यह संदेश देते हैं कि राष्ट्र निर्माण का सबसे प्रभावी माध्यम संगठन है।
“जो समाज स्वयं को संगठित करता है, वही सुरक्षित रहता है।” वे युवाओं से अपेक्षा करते हैं कि वे केवल सुधार की बातें न करें, बल्कि संगठित होकर समाज में सेवा और जनजागरण का कार्य करें।
सेवा के कार्यों को वे राष्ट्र की पूजा मानते हैं, चाहे वह ग्राम विकास हो, पर्यावरण संरक्षण या शिक्षा और संस्कार के क्षेत्र में योगदान।
नैतिकता और आचरण : युवा का असली बल
लेखक के अनुसार, राष्ट्र का वास्तविक बल उसके नागरिकों के आचरण में छिपा होता है। वे कहते हैं कि आज का युवा सबसे अधिक शिक्षित और तकनीकी रूप से सक्षम है, परंतु यदि उसमें नैतिकता और आत्मानुशासन का अभाव है, तो उसकी ऊर्जा दिशाहीन हो सकती है।
पुस्तक युवाओं से आग्रह करती है कि वे अपने जीवन में ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा और संयम जैसे मूल्यों को आधार बनाएं, क्योंकि इन्हीं से राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण होता है।
मोहन भागवत आधुनिक समय की चुनौतियों को स्वीकार करते हैं, जैसे सोशल मीडिया का प्रभाव, वैश्वीकरण, उपभोक्तावाद और सांस्कृतिक भ्रम परंतु उनके समाधान वे भारतीय दृष्टिकोण में खोजते हैं।
वे कहते हैं “आधुनिक बनना गलत नहीं, परंतु अपनी जड़ों से कटना आत्मघात है।”
उनके अनुसार, युवा को तकनीकी रूप से दक्ष बनना चाहिए, परंतु उसके निर्णयों की जड़ें भारतीयता में होनी चाहिए। यही आधुनिकता और आध्यात्मिकता का संतुलन है।
आत्मनिर्भरता और स्वदेशी चेतना
पुस्तक में आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना को भी युवाओं से जोड़ा गया है। डॉ. भागवत युवाओं से कहते हैं कि वे रोजगार की अपेक्षा रोजगार-सृजन पर ध्यान दें। वे चाहते हैं कि भारतीय युवा विज्ञान, कृषि, तकनीक और उद्योग के क्षेत्रों में नए प्रयोग करें और ‘स्वदेशी’ को केवल उत्पाद नहीं, बल्कि विचारधारा के रूप में अपनाएँ।
साथ ही लेखक ने स्वामी विवेकानंद, लोकमान्य तिलक, भगत सिंह, डॉ. हेडगेवार और डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जैसे अनेक महापुरुषों के उदाहरण दिए हैं।
इन सभी ने युवावस्था में ही सिद्ध किया कि कर्तव्य और त्याग से बड़ा कोई आदर्श नहीं होता। यह पुस्तक युवाओं को इन्हीं आदर्शों से शक्ति लेने का आह्वान करती है।
शैली और प्रस्तुति
डॉ. मोहन भागवत की लेखन शैली अत्यंत सहज, स्पष्ट और संवादात्मक है। वे पाठक से औपचारिक नहीं, बल्कि आत्मीय संवाद करते हैं। उनके विचार नारे नहीं, बल्कि जीवन का दर्शन हैं।
पुस्तक की भाषा में गहराई है, परंतु वह जटिल नहीं है। हर अध्याय युवाओं को सोचने, समझने और कुछ करने के लिए प्रेरित करता है।
आज के भारत के लिए प्रासंगिकता
जब भारत दुनिया की सबसे बड़ी युवा आबादी वाला देश है, लगभग 65% जनसंख्या 35 वर्ष से कम उम्र की है, तब यह पुस्तक अत्यंत प्रासंगिक हो जाती है।
आज के परिप्रेक्ष्य में, जब सोशल मीडिया, आत्मकेंद्रित जीवनशैली और मूल्य-संकट ने युवाओं को दिशा से विमुख किया है, तब यह पुस्तक उन्हें आदर्श, दिशा और लक्ष्य प्रदान करती है।
“राष्ट्र निर्माण में युवाओं का योगदान” कोई सामान्य पुस्तक नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय संकल्प का दस्तावेज़ है। यह युवाओं को केवल सोचने के लिए नहीं, बल्कि कर्मपथ पर चलने के लिए प्रेरित करती है।
डॉ. भागवत लिखते हैं “राष्ट्र एक विचार नहीं, एक आचरण है और जब युवा इस आचरण को अपनाता है, तब राष्ट्र पुनर्जन्म लेता है।”
यह पुस्तक हर उस युवा के लिए अनिवार्य पठनीय है जो भारत को केवल देखना नहीं, बल्कि गढ़ना चाहता है।
यह कृति भारत के युवा वर्ग को यह स्मरण कराती है कि राष्ट्र का निर्माण किसी और से नहीं, स्वयं उनसे शुरू होता है। यह पुस्तक युवा मन को राष्ट्र के साथ जोड़ती है और उनके भीतर निहित ‘भारत’ को जगाने का आह्वान करती है।