पुस्तक समीक्षा - राष्ट्रीय आंदोलन और संघ

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    19-Nov-2025
Total Views |

rss book reivew
 
 
डॉ. भूपेन्द्र कुमार सुल्लेरे
 
पुस्तक की प्रस्तावना यह स्थापित करती है कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को प्रायः मार्क्सवादी - औपनिवेशिक दृष्टियों ने एक सीमित खांचा प्रदान किया है, जिसमें केवल कांग्रेस की गतिविधियों और ब्रिटिश विरोध को ही इतिहास मान लिया गया। लेखक इस पूर्वाग्रह को चुनौती देते हुए राष्ट्रीय आंदोलन को समाज-आधारित, संस्कृतिमूलक और दीर्घकालिक राष्ट्रीय चेतना के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
 
यह प्रस्तावना पुस्तक की दिशा और दृष्टि दोनों को स्थापित करती है कि राष्ट्रीय आंदोलन का स्वरूप केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक पुनर्जागरण का परिणाम था, और इसी सूत्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका को समझना आवश्यक है।
 
प्रस्तावना में यह स्पष्ट संदेश है कि लेखक पूरे विमर्श को पश्चिमी इतिहासकारों के प्रभाव से मुक्त कर भारतीयता-आधारित व्याख्या देना चाहते हैं। यह दृष्टि पुस्तक की सबसे बड़ी ताकत है।
 
राष्ट्रीय आंदोलन की जड़ें - संस्कृति, समाज और आत्मचेतना
इस अध्याय में लेखक यह सिद्ध करते हैं कि भारत में ‘राष्ट्र’ कोई 19वीं सदी का आयातित विचार नहीं था, बल्कि ऋग्वेद से लेकर मध्यकाल तक एक अखंड सांस्कृतिक राष्ट्रभाव लगातार विद्यमान था। विदेशी आक्रमणों के विरुद्ध संघर्ष, संत परंपरा, गुरु-शिष्य परंपरा, स्थानीय स्वराज, ये सब राष्ट्रीय आंदोलन के बीज के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं।
लेखक ने प्रभावी ढंग से दिखाया है कि राष्ट्रीय आंदोलन को समझने के लिए 1857 ही प्रारंभ-बिंदु नहीं है। यह दृष्टि इतिहास को विस्तारपूर्ण बनाती है।
 
 
1857 का स्वातंत्र्य युद्ध - राष्ट्रीय चेतना का पुनर्जागरण
पुस्तक 1857 को ‘विद्रोह’ नहीं, ‘राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम का प्रथम महासंग्राम’ बताती है। नाना साहब, तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई, कुंवर सिंह आदि के संघर्ष तथा जनजातीय वीरों की भूमिका को विशेष स्थान मिलता है। मुख्यधारा के इतिहास लेखन में उपेक्षित जननायकों को सामने लाना पुस्तक की महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
 
कांग्रेस का उदय और राष्ट्रीय आंदोलन का राजनीतिक मोड़
इस अध्याय में कांग्रेस की भूमिका को स्वीकार करते हुए उसकी सीमाओं पर भी आलोचनात्मक प्रकाश डाला गया है। ब्रिटिश अनुमोदन और प्रारंभिक नरमपंथी नेतृत्व, आंतरिक वैचारिक मतभेद, समाज-संस्कृति से कटे हुए आंदोलन के खतरे आदि। लेखक यह भी बताते हैं कि कांग्रेस ने देश के अनेक समाज-आधारित राष्ट्रवादी उदय को एक ‘राजनीतिक मंच’ तक सीमित कर दिया।
 
अध्याय संतुलित है, न तो अतिशय आलोचना, न अंध-प्रशंसा।
 
भारतीय समाज में संगठित शक्ति की आवश्यकता और संघ का उदय
यह अध्याय पुस्तक का केंद्रीय बिंदु है। डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का जीवन, कांग्रेस में उनके अनुभव, राष्ट्रीय आंदोलन में संगठन की कमी और समाज को संगठित शक्ति में बदलने का उनका स्वप्न, इनका विस्तृत वर्णन मिलता है। लेखक इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि स्वतंत्रता केवल राजनीतिक लड़ाई से नहीं, समाज की संगठित ऊर्जा से प्राप्त हो सकती है। यही वह स्थान है जहाँ संघ का ऐतिहासिक महत्व उभरकर आता है।
 
स्वतंत्रता संग्राम में संघ की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भूमिका
यह अध्याय उन आरोपों का उत्तर प्रस्तुत करता है जिनमें कहा गया कि संघ स्वतंत्रता आंदोलन से दूर रहा। लेखक साक्ष्यों के आधार पर बताते हैं कि अनेक स्वयंसेवक सत्याग्रह, व्यक्तिगत सत्याग्रह और भूमिगत आंदोलनों में थे। 1942 जैसा आंदोलन हिंसा और अराजकता का रूप ले चुका था, इसलिए संघ का विवेकपूर्ण दृष्टिकोण सामाजिक स्थिरता पर आधारित था। संघ युवाओं में राष्ट्रभक्ति, अनुशासन, स्वावलंबन और सेवा की शक्ति का निर्माण कर रहा था। यह अध्याय विद्वत्तापूर्ण है और आरोपों का तथ्यपूर्ण प्रतिवाद करता है।
 
विभाजन - राष्ट्रवाद की त्रासदी और संघ की सेवा
पुस्तक का यह अध्याय अत्यंत संवेदनशील है। इसमें वर्णित हैसविभाजन की हिंसा, शरणार्थियों का पुनर्वास, संघ के स्वयंसेवकों की भावनात्मक-सामाजिक सेवा, सरकार द्वारा संघ को समझने में हुई असफलताएँ आदि। यह अध्याय पाठक को इतिहास के उस भीषण पक्ष से परिचित कराता है, जिसमें ‘संगठन’ ही एकमात्र संबल बन पाया था।
 
स्वतंत्रता के बाद - राष्ट्र निर्माण में संघ का योगदान
भारत-व्यवस्था में संघ की भूमिका का उल्लेख है जैसे शिक्षा में भारतीय मूल्य, समाज सेवा, वनवासी कल्याण, ग्राम विकास, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की स्थापना, जनमानस में ‘राष्ट्र प्रथम’ चेतना का विस्तार, राष्ट्र निर्माण केवल सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि समाज चेतना का उन्नयन भी है।
 
राष्ट्रीय आंदोलन और संघ – एक अविभाज्य सूत्र
 
पुस्तक का अंतिम भाग यह सिद्ध करता है कि
राष्ट्रीय आंदोलन केवल राजनीतिक संघर्ष नहीं था
संघ इस आंदोलन की सामाजिक चेतना की निरंतरता है
स्वतंत्र भारत के सांस्कृतिक पुनरुत्थान में संघ की भूमिका ऐतिहासिक है
संगठन, अनुशासन और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद बिना स्वतंत्रता अधूरी है
लेखक कहते हैं कि राष्ट्रीय आंदोलन की संपूर्णता समझने के लिए संघ को केंद्र में रखकर भारतीय राष्ट्रवाद का स्वदेशी अध्ययन अनिवार्य है।
 
यह पुस्तक राष्ट्रीय आंदोलन को समझने के लिए ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की दृष्टि प्रदान करती है। मुख्यधारा इतिहास में जहाँ संघ को हाशिए पर रखा गया, वहाँ यह पुस्तक उसे भारत की राष्ट्रीय चेतना का स्वाभाविक और महत्वपूर्ण अंग सिद्ध करती है। राष्ट्रवादी विमर्श, वैचारिक अनुसंधान, इतिहास अध्ययन और समाजशास्त्र सभी क्षेत्रों के लिए यह पुस्तक महत्वपूर्ण है।