डॉ. भूपेन्द्र कुमार सुल्लेरे
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तीसरे सरसंघचालक श्री बाला साहेब देवरस की यह महत्वपूर्ण पुस्तक ‘सामाजिक समरसता और हिंदूत्व’ केवल एक वैचारिक ग्रंथ नहीं, बल्कि हिंदू समाज के मर्म, उसके अंतरसंबंधों और सामाजिक संगठन के पुनरुत्थान का गहन घोषणापत्र है। यह पुस्तक उस दृष्टि से लिखी गई है, जो भारत को केवल भौगोलिक इकाई नहीं, बल्कि जीवंत सांस्कृतिक राष्ट्र मानती है। एक ऐसा राष्ट्र जो हजारों वर्षों से ‘एकता में विविधता’ के सिद्धांत पर आधारित है।
देवरस जी ने इस पुस्तक में सामाजिक विषमता, जातिगत विभाजन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, हिंदू समाज की कमजोरी और सामाजिक समरसता के निर्माण हेतु आवश्यक सांस्कृतिक-धार्मिक उपायों को अत्यंत सरल किंतु गहन शैली में प्रस्तुत किया है।
पुस्तक की दृष्टि : ‘एकात्म मानव समाज’ का दर्शन
इस पुस्तक का मूल दर्शन है “समाज का संगठन तभी संभव है जब हम मनुष्य को मनुष्य मानकर, उसके स्वत्व और मर्यादा को स्वीकार करते हुए आगे बढ़ें।”
देवरस जी की दृष्टि में हिंदू समाज की सबसे बड़ी ताकत उसकी समन्वयवादी प्रकृति है। उन्होंने हिंदुत्व को किसी संकीर्ण धार्मिक पहचान से परे एक सांस्कृतिक जीवनदर्शन के रूप में प्रस्तुत किया है। इस पुस्तक में वे बताते हैं कि हिंदुत्व का मूल है विराट आत्मा में विश्वास, हर जीव में ईश्वर का निवास मानने की संस्कृति, ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ और ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ जैसी मान्यताएँ। इसी आधार पर वे सामाजिक भेदभाव को हिंदू परंपरा का हिस्सा नहीं, बल्कि कालांतर में उपजी विकृति बताते हैं।
किस दृष्टिकोण और किस भारत को ध्यान में रखकर लिखी गई है पुस्तक
देवरस जी ने यह पुस्तक स्वतंत्र भारत के पुनर्निर्माण की जरूरत को ध्यान में रखकर लिखी। यह वह काल था जब सामाजिक विषमताएँ बढ़ रही थीं, जातिगत अलगाव राजनीतिक हथियार बन रहा था, हिंदू समाज संगठन की दिशा खो रहा था और नई पीढ़ी सांस्कृतिक भ्रम से गुजर रही थी। इस परिस्थिति में देवरस जी ने एक संगठित, उदार, जाग्रत और आत्मविश्वासी हिंदू समाज की कल्पना की थी। वे चाहते थे कि नए भारत का उदय समरसता के मूल्य पर हो, जहाँ जाति नहीं, मानवता आधार हो, ऊँच-नीच भेद समाप्त हो, सबको समान सम्मान और अवसर मिले और समाज अपनी आध्यात्मिक-सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ा रहे।
सनातन धर्म पर प्रभाव
इस पुस्तक का सनातन धर्म पर प्रभाव अत्यंत गहरा है। देवरस जी ने बताया कि सामाजिक समरसता स्वयं सनातन का मूल तत्व है। ऋग्वेद से उपनिषद तक, गीता से रामायण तक हर ग्रंथ सामाजिक समता का संदेश देता है।
देवरस जी के अनुसार “जाति-बद्धता हमारे शास्त्रों की देन नहीं, यह समाज की भूल है, इसे सुधारा जा सकता है।”
यह पुस्तक बताती है कि सनातन का सार मानव कल्याण है और सामाजिक सुधार उसी से प्रारंभ होता है। इसने सनातन परंपरा को सामाजिक न्याय, समता और उन्नयन के साथ जोड़ा।
आस्था नहीं, व्यवहार परिवर्तन
देवरस जी कहते हैं “समरसता पूजा-पाठ से नहीं, व्यवहार परिवर्तन से आएगी।” यह सनातन समाज में एक नई धारा का आरंभ था, सक्रिय सामाजिक सुधार की धारा। यह पुस्तक संघ के विचार-परिवार के लिए नींव का पत्थर सिद्ध हुई।
संघ की समरसता यात्रा का बौद्धिक स्रोत
सामाजिक समरसता संघ की प्रमुख परिचायक बन गई।
सेवा कार्यों को नया वैचारिक आधार
वंचित एवं जनजातीय समाज के बीच संघ के विशाल सेवा-कार्य इसी दृष्टि से प्रेरित हैं।
स्वयंसेवकों के आचार-दर्शन का निर्माण
स्वयंसेवकों की प्रशिक्षण पद्धति, भाषण संस्कृति, शाखा-व्यवहार और सामाजिक कार्यों में यह पुस्तक केंद्रीय मार्गदर्शक भूमिका निभाती है।
“सबका साथ-सबका विकास” जैसे राष्ट्रीय मंत्र की वैचारिक जड़ें
संघ की समरसता-चेतना ने भारतीय राजनीति में भी व्यापक प्रभाव छोड़ा।
यह पुस्तक क्यों पढ़नी चाहिए?
यह पुस्तक पढ़ने के प्रमुख कारणः
हिंदू समाज की वास्तविक चुनौतियों को समझने हेतु
जाति, विभाजन, सामाजिक उपेक्षा, असमानता इन सब पर देवरस जी की साफ, समाधानपरक दृष्टि स्पष्ट दिशा देती है।
संगठन की भूमिका समझने हेतु
कैसे समाज में बिना टकराव के परिवर्तन लाया जा सकता है यह पुस्तक इसकी कार्यनीति प्रदान करती है।
राष्ट्रीय एकता का आधार जानने हेतु
समरसता को देवरस जी राष्ट्र निर्माण की पहली शर्त बताते हैं।
व्यवहार में परिवर्तन लाने हेतु
यह पुस्तक व्यक्ति के अंदर कर्तव्यबोध, कर्तव्यनिष्ठा और समाज-उद्धार की मानसिकता पैदा करती है।
भारतीय संस्कृति के गहन अध्ययन हेतु
यह पुस्तक बताती है कि हिंदुत्व का अर्थ किसी दूसरे के विरोध से नहीं, बल्कि सभी के हित से है।
भारत की विविध संस्कृति के अनुरूप पुस्तक की प्रासंगिकता
भारत का सामाजिक ढांचा बहुलतावादी है। इस संदर्भ में यह पुस्तक विविधता में एकता की ताकत बताती है, समुदायों के बीच परस्पर सम्मान बढ़ाती है, जाति-वर्ग-भाषा आधारित राजनीतिक संघर्षों का समाधान देती है और एक ऐसा सामाजिक मॉडल प्रस्तुत करती है जो भारतीय, आधुनिक और सनातनी तीनों है।
आज जब सामाजिक तनाव, पहचान-राजनीति और जातिगत ध्रुवीकरण बढ़ रहा है, तब यह पुस्तक और भी आवश्यक हो जाती है।
एक पुनर्जागरण का घोषणापत्र
बाला साहेब देवरस की ‘सामाजिक समरसता और हिंदूत्व’ केवल एक पुस्तक नहीं, बल्कि भारतीय समाज की आत्मा का परिचय, सनातन मूल्य-व्यवस्था की उजली धारा, सामाजिक उत्थान का सूत्र और राष्ट्रीय एकता का कालजयी मार्गदर्शन है।
यह पुस्तक संघ स्वयंसेवकों के साथ-साथ प्रत्येक भारतीय, प्रत्येक बुद्धिजीवी और प्रत्येक सामाजिक कार्यकर्ता के लिए पढ़ना अनिवार्य है, क्योंकि यह समाज को भीतर से जोड़ने वाली चेतना जगाती है।