पुस्तक समीक्षा : “धर्म की अवधारणा” - रंगा हरि

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    15-Nov-2025
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ranga hari 
 
डॉ. भूपेन्द्र कुमार सुल्लेरे
 
लेखक : रंगा हरि
विषय : भारतीय दृष्टि से धर्म का दार्शनिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विवेचन
प्रकाशक : साप्ताहिक "पाञ्चजन्य" / भारत प्रकाशन, नई दिल्ली
प्रथम प्रकाशन : लगभग 1990 के दशक में (संघ के वैचारिक विमर्श के दौर में)
 
 
लेखक परिचय
रंगा हरि जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रखर विचारक, शिक्षाविद् और दार्शनिक चिंतक रहे हैं। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय संघ शिक्षा वर्गों, प्रबोधन कार्यक्रमों और वैचारिक प्रशिक्षण के माध्यम से भारत के मूल मूल्य और संस्कारों की व्याख्या में समर्पित किया।
उनकी शैली सहज, तर्कसंगत और भारतीय दार्शनिक परंपरा की गहराई से जुड़ी है। वे “धर्म” को न पूजा-पद्धति मानते हैं और न संप्रदाय, बल्कि “जीवन के संतुलन और समरसता का शाश्वत सिद्धांत” मानते हैं।
 
 
पुस्तक का उद्देश्य
पुस्तक का प्रमुख उद्देश्य है “धर्म को उसके सनातन, सार्वभौमिक और व्यावहारिक स्वरूप में प्रस्तुत करना तथा पाश्चात्य दृष्टिकोण से उपजे भ्रमों का निरसन करना।”
आज “धर्म” को केवल Religion के रूप में समझा जाता है, जबकि भारतीय परंपरा में धर्म का अर्थ कर्तव्य, नीति, न्याय, सत्य, करुणा और लोककल्याण का समन्वय है।
लेखक ने इसी बिंदु को स्पष्ट करते हुए कहा है कि “धर्म मनुष्य के भीतर का संतुलन है, और समाज में आचरण का मर्यादाबोध।”
 
 
प्रमुख विषय-वस्तु (मुख्य बिंदु/अध्यायों का सार)
 
(क) धर्म की भारतीय अवधारणाः धर्म का अर्थ केवल पूजा, आस्था या मत नहीं है। यह “धारण करने योग्य सत्य” है, जो व्यक्ति, समाज और सृष्टि को संतुलित रखता है। मनु, व्यास, याज्ञवल्क्य, बुद्ध और महावीर सभी ने धर्म को व्यवहार, नीति और आत्मानुशासन के रूप में प्रस्तुत किया।
 
(ख) धर्म बनाम रिलिजनः पश्चिमी विचार में Religion ईश्वर–केन्द्रित है, जबकि भारतीय धर्म, सत्य और कर्तव्य केन्द्रित है। धर्म किसी चर्च या किताब में बंद नहीं है, यह सतत प्रवाहमान अनुभव है। धर्म सार्वभौमिक है, इसलिए किसी का विरोध नहीं करता। यह “सर्वे भवन्तु सुखिनः” की भावना से प्रेरित है।
 
(ग) धर्म और समाजः धर्म समाज की रचना और स्थिरता का आधार है। धर्म ही समाज में कर्तव्य भावना, सह-अस्तित्व और मर्यादा स्थापित करता है। यदि धर्म न रहे, तो समाज मात्र भीड़ बन जाता है।
रंगा हरि जी कहते हैं “राज्य व्यवस्था, कानून या संविधान केवल बाह्य अनुशासन दे सकते हैं, किंतु धर्म आंतरिक अनुशासन का स्रोत है।”
 
(घ) धर्म और राजनीतिः धर्म राजनीति का मार्गदर्शन करता है, शासन नहीं करता। जब राजनीति धर्मविरुद्ध हो जाती है, तो अत्याचार और भ्रष्टाचार जन्म लेते हैं। भारतीय परंपरा में रामराज्य और कृष्णनीति दोनों धर्मनिष्ठ शासन के उदाहरण हैं।
 
(ङ) आधुनिक युग में धर्म की प्रासंगिकताः आज का मनुष्य विज्ञान और उपभोग के युग में आत्म शांति खो चुका है। धर्म उसे आंतरिक संतुलन, कर्तव्य और सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना देता है।
लेखक कहते हैं “धर्म कोई बोझ नहीं, बल्कि मनुष्य की आत्मा का प्राकृतिक आचरण है।”
 
पुस्तक की विशिष्टताएँ
1. पुस्तक धर्म को भारतीय दर्शन के केंद्र में रखकर उसे पुनः ‘जीवन-दर्शन’ के रूप में स्थापित करती है।
2. रंगा हरि जी ने जटिल दार्शनिक अवधारणाओं को सरल, संवादात्मक शैली में समझाया है।
3. शास्त्रों के उदाहरणों के साथ आधुनिक सामाजिक संदर्भ भी जोड़े गए हैं।
4. संघ के दृष्टिकोण से धर्म केवल पूजा नहीं, बल्कि “राष्ट्र जीवन का प्राण तत्व” है, यह विचार पूरे ग्रंथ में प्रवाहित है।
5. पुस्तक पाठक को यह सोचने पर विवश करती है कि “धर्मनिरपेक्षता” का अर्थ धर्महीनता नहीं, बल्कि सर्वधर्म समभाव होना चाहिए।
 
 
पाठकों के लिए यह पुस्तक क्यों पढ़नी चाहिए
 

review 
 
1. पुस्तक स्पष्ट करती है कि धर्म कोई संप्रदाय नहीं, बल्कि जीवन का शाश्वत मूल्य है।
2. आज धर्म को कट्टरता से जोड़ा जाता है, जबकि लेखक इसके मानवीय और समरस स्वरूप को प्रस्तुत करते हैं।
3. यह पुस्तक संघ के “धर्म आधारित राष्ट्रवाद” की वैचारिक पृष्ठभूमि को स्पष्ट करती है।
4. धर्म और राजनीति, धर्म और अर्थनीति, धर्म और शिक्षा, इन सभी संबंधों पर पुस्तक गहराई से विचार करती है।
5. यह पाठक को व्यक्तिगत जीवन में धर्म को आचरण में लाने की प्रेरणा देती है।
 
 
रंगा हरि जी की “धर्म की अवधारणा” पुस्तक केवल वैचारिक ग्रंथ नहीं, बल्कि आत्मचिंतन का आमंत्रण है। यह पाठक को यह सोचने पर विवश करती है कि “क्या हम धर्म को केवल परंपरा तक सीमित कर रहे हैं, या उसे अपने जीवन का आचरण बना पा रहे हैं?”
 
यह ग्रंथ उन सभी के लिए आवश्यक पठन है जो भारतीय समाज, संस्कृति, राष्ट्रवाद और आचार-संहिता की जड़ों को समझना चाहते हैं।
 
यह पुस्तक भारत की आत्मा के उस शाश्वत सूत्र को पुनर्जीवित करती है जो बताता है “धर्मो रक्षति धर्मः” अर्थात जो धर्म की रक्षा करता है, वही स्वयं सुरक्षित रहता है।