डॉ. प्रवीण दाताराम गुगनानी
बिरसा मुंडा महान क्रांतिकारी थे। उन्होंने जनजातीय समाज को साथ लेकर उलगुलान किया था। उलगुलान अर्थात हल्ला बोल, क्रांति का ही एक देशज नाम। वे महान संस्कृतिनिष्ठ समाज सुधारक भी थे। वे संगीतज्ञ भी थे, जिन्होंने सूखे कद्दू से एक वाद्ययंत्र का आविष्कार किया था जो अब भी बहुत लोकप्रिय है। इसी वाद्ययंत्र को बजाकर वे आत्मिक सुख प्राप्त करते थे और दलित, पीड़ित समाज को संगठित करने का कार्य भी करते थे। ठीक वैसे ही जैसे भगवान श्रीकृष्ण अपनी बांसुरी से स्वांतः सुख और समाज सुख दोनों ही साध लेते थे। सूखे कद्दू से बना यह वाद्ययंत्र अब भी भारतीय संगीत जगत में वन क्षेत्रों से लेकर बॉलीवुड तक प्रमुखता से बनाया और बजाया जाता है।
वस्तुतः बिरसा मुंडा की मूल कार्यशैली जनजातीय समाज को ईसाइयों के धर्मांतरण से बचाने, अत्याचारों से समाज को बचाने, समाज में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करने और शोषक वर्ग से समाज को बचाने की रही। भारतीय समाज का एक महत्वपूर्ण और अविभाज्य अंग रहा है जनजातीय समाज। मूलतः प्रकृति पूजक यह समाज सदा से भौतिकता, आधुनिकता और धन संचय से दूर ही रहा है।
“अबुआ दिशोम रे अबुआ राज” अर्थात अपनी धरती, अपना राज का नारा वीर बिरसा मुंडा ने दिया था।
वीर शिरोमणि बिरसा की जयंती के अवसर पर बिरसा के राष्ट्र हेतु प्राणोत्सर्ग की कहानी पढ़ने के साथ यह भी स्मरण करने का अवसर है कि स्वतंत्र भारत में अर्थात अबुआ दिशोम में जनजातीय और वनवासी बंधुओं के साथ, उनकी संस्कृति के साथ क्या-क्या षड्यंत्र हो रहे हैं।
वस्तुतः जनजातीय समाज के समक्ष अब भी बड़ी चुनौतियाँ वैचारिक और सांस्कृतिक स्तर पर लगातार खड़ी की जा रही हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है समूचे भारत में फैलाया जा रहा आर्य और अनार्य का विघटनकारी वितंडा। कथित तौर पर आर्य कहे जाने वाले लोग भी भारत में उतने ही प्राचीन हैं जितने कि अनार्य का दर्जा दे दिए गए जनजातीय समाज के लोग। वस्तुतः वनवासी समाज को अनार्य कहना ही एक अपशब्द की भांति है, क्योंकि आर्य का अर्थ होता है सभ्य और अनार्य का अर्थ होता है असभ्य।
सच्चाई यह है कि भारत का यह वनवासी समाज पुरातन काल से ही सभ्यता, संस्कृति, कला, निर्माण, राजनीति, शासन व्यवस्था, उत्पादकता और सबसे बड़ी बात राष्ट्र और समाज के उपादेयता के विषय में किसी भी अन्य समाज के संग कदम से कदम मिलाकर चलता रहा है और अब भी चल रहा है।
अपने विभेदकारी लक्ष्य की पूर्ति हेतु पश्चिमी विद्वानों ने भारतीय जातियों में विभेद उत्पन्न किया और द्रविड़ों को भारत का मूल निवासी तथा आर्यों को बाहरी आक्रमणकारी कहना प्रारंभ किया। ईसाइयों ने अपने धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करने हेतु इस प्रकार के षड्यंत्र रचना सतत चालू रखे। विदेशियों ने ही भारत के इतिहास लेखन में यह बात दुराशयपूर्वक बोई कि आर्य विदेश से आई हुई एक जाति थी जिसने भारत के मूल निवासी द्रविड़ समाज की सभ्यता को आक्रमण करके पहले नष्ट किया और उन्हें अपना गुलाम बनाया।
जबकि यथार्थ यह है कि आर्य किसी जाति का नहीं बल्कि एक उपाधि का नाम था, जो किसी विशिष्ट व्यक्ति को उसकी योग्यताओं, अध्ययन या सिद्धि हेतु प्रदान की जाती थी। आर्य शब्द का सामान्य अर्थ होता है विशेष। पहले अंग्रेजों ने और स्वातंत्र्योत्तर काल में अंग्रेजों द्वारा लादी गई शिक्षा पद्धति ने भारत में लगभग छह दशकों तक इसी दूषित, अशुद्ध और दुराशयपूर्ण इतिहास का पठन-पाठन चालू रखा।
भारत में इसी दूषित शिक्षा पद्धति ने आर्यन इन्वेजन थ्योरी की स्थापना की और सामाजिक विभेद के बीज लगातार बोए। जर्मनी में जन्मे किंतु संस्कृत के ज्ञान के कारण अंग्रेजों द्वारा भारत बुलाए गए मैक्समूलर ने आर्यन इन्वेजन थ्योरी का अविष्कार किया। मैक्समूलर ने लिखा कि आर्य एक सुसंस्कृत, शिक्षित, विस्तृत धर्मग्रंथों वाली, अपनी लिपि और भाषा वाली घुमंतू किंतु समृद्ध जाति थी। इस प्रकार मैक्समूलर ने आर्य इन्वेजन थ्योरी का सफेद झूठ भारत में बोया, जिसे बाद में अंग्रेजी शिक्षा पद्धति ने एक बड़ा वृक्ष बना दिया।
यद्यपि बाद में 1921 में हड़प्पा और मोहनजोदड़ो सभ्यता मिलने के बाद आर्यन थ्योरी को बड़ा धक्का लगा, किंतु अंग्रेजों ने अपनी शिक्षा पद्धति, झूठे इतिहास लेखन और षड्यंत्र के बल पर इस थ्योरी को जीवित रखा। सबसे बड़ी खेद की बात यह है कि अंग्रेजों के जाने के पश्चात भारत में एक बड़ा वर्ग ऐसा जन्मा जो कहने को तो भारतीय है किंतु मानसिकता से भारत विरोधी है। यह वर्ग सेकुलर, नक्सलवादी, माओवादी, बुद्धिजीवी, प्रगतिशील, जनवादी आदि नामों से समाज सेवा के नाम पर समाज और देश को तोड़ते हुए सहजता से मिल जाएगा।
सिंधु घाटी सभ्यता की श्रेष्ठता को दबाने और आर्य-द्रविड़ के मध्य विभाजन रेखा खींचने की यह कथा बहुत विस्तृत चली और अब भी यह कथित विघ्नसंतोषी वर्ग इसे चलाए हुए है, किंतु इसे हमारा समाज अब भी चिन्हित नहीं कर पाया है। आज सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि वनवासी समाज में घुसपैठ कर रहे इस कालनेमी वर्ग को पहचाना जाए और उनके देशविरोधी, समाजविरोधी चरित्र पर पड़े छद्म आवरण को हटाया जाए।
इस विघ्नसंतोषी वर्ग की बातों को अलग कर यदि हम भारत के जनजातीय समाज और अन्य समाजों में परस्पर एकरूपता की बात करें तो कई अकाट्य तथ्य सामने आते हैं। कथित तौर पर जिन्हें आर्य और द्रविड़ अलग-अलग बताया गया, उन दोनों का डीएनए परस्पर समान पाया गया है। दोनों ही शिव के उपासक हैं। प्रसिद्ध एंथ्रोपोलॉजिस्ट वेरियर एल्विन, जो अंग्रेजों के सलाहकार थे, ने जनजातीय समाज पर किए गए अध्ययन में बताया था कि ये कथित आर्य और द्रविड़ शैविज्म के ही एक भाग हैं और इनके आराध्य शंभूशेक भगवान शंकर का ही रूप हैं।
ऐसे वीर हजारों जनजातीय बंधुओं के नाम इतिहास में दर्ज हैं, जिन्होंने अपना सर्वस्व भारत की संस्कृति और हिंदुत्व की रक्षा के लिए अर्पित कर दिया।
गौपालन और गौ-संरक्षण का संदेश बिरसा मुंडा ने भी समान रूप से दिया है। और क्रांतिसूर्य बिरसा मुंडा का “उलगुलान” संपूर्णतः हिंदुत्व आधारित ही है। ईश्वर यानी सिंगबोंगा एक है, गौ की सेवा करो, समस्त प्राणियों के प्रति दया भाव रखो, अपने घर में तुलसी का पौधा लगाओ, ईसाइयों के मोहजाल में मत फंसो, परधर्म से अच्छा स्वधर्म है, अपनी संस्कृति, धर्म और पूर्वजों के प्रति अटूट श्रद्धा रखो, गुरुवार को भगवान सिंगबोंगा की आराधना करो और इस दिन हल मत चलाओ – यह सब संदेश भगवान बिरसा मुंडा ने दिए हैं।
जिन्हें आर्य कहा गया और जिन्हें अनार्य कहा गया, दोनों ही वन, नदी, पेड़, पहाड़, भूमि, गाय, बैल, सर्प, नाग, सूर्य, अग्नि आदि की पूजा हजारों वर्षों से करते रहे हैं। ऐसी स्थिति में हम सभी भारतीयों का यह कर्तव्य बनता है कि आर्य विरुद्ध अनार्य के इस विघटनकारी विमर्श से देश को मुक्ति दिलाएँ और एकरस, एकरूप और एकात्म होकर राष्ट्रनिर्माण में अपना योगदान दें।