युगपुरुष दत्तोपंत ठेंगड़ी : संगठन–निर्माण के शिल्पकार और राष्ट्रवाद के कर्मयोगी

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    10-Nov-2025
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thengadi ji
 
-डॉ. भूपेन्द्र कुमार सुल्लेरे
 
भारतवर्ष के सामाजिक पुनरुत्थान का इतिहास उन कर्मयोगी व्यक्तित्वों से परिपूर्ण है, जिन्होंने राष्ट्रवाद को केवल विचार नहीं, बल्कि जीवन का उद्देश्य बनाया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ऐसे ही युगपुरुष दत्तोपंत ठेंगड़ी थे जिन्होंने संगठन–निर्माण को साधना बनाया और संघ विचार को समाज के विविध वर्गों तक पहुँचाने का अनवरत कार्य किया।
 
वे केवल प्रचारक नहीं, बल्कि राष्ट्र-पुनर्निर्माण के शिल्पकार थे, जिन्होंने समाज के हर वर्ग - मजदूर, विद्यार्थी, किसान, ग्राहक और उद्योगपति में संघ की जीवनदृष्टि का संचार किया।
 
दत्तोपंत ठेंगड़ी का जन्म 10 नवम्बर 1920 को अरवी (जिला वर्धा, महाराष्ट्र) में हुआ। उनके पिता श्री बालाजी ठेंगड़ी स्वतंत्रता सेनानी थे, जिससे उन्हें देशभक्ति और समाजसेवा के संस्कार बाल्यावस्था से ही प्राप्त हुए। उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से विधि की उपाधि प्राप्त की, परंतु जीवन का लक्ष्य राष्ट्रसेवा को बनाया। युवा अवस्था में ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े और प्रचारक के रूप में जीवन समर्पित कर दिया।
 
संघ प्रचारक के रूप में ठेंगड़ी जी ने सादगी, अनुशासन और समर्पण को जीवन का आधार बनाया। वे मानते थे कि “संघ केवल संगठन नहीं, बल्कि समाज की चेतना है।” उन्होंने विद्यार्थी, किसान, मजदूर और व्यापारी वर्ग में शाखा-संस्कारों के माध्यम से राष्ट्रीय एकात्मता का भाव जगाया। उनका दृष्टिकोण था कि समाज के प्रत्येक वर्ग को राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया में सहभागी बनाना।
 
 
भारतीय मजदूर संघ की स्थापना (1955)
वर्ष 1955 में ठेंगड़ी जी ने श्रमिकों को राष्ट्र-विचार से जोड़ने के उद्देश्य से भारतीय मजदूर संघ की स्थापना की। उस समय श्रमिक आंदोलन वामपंथ और पूंजीवाद के बीच झूल रहा था। ठेंगड़ी जी ने तीसरा विकल्प प्रस्तुत किया “भारतीय मॉडल”, जो राष्ट्रनिष्ठा, श्रम-सम्मान और सहकार पर आधारित था।
 
उन्होंने कहा “श्रम केवल जीविका का साधन नहीं, वह राष्ट्र-निर्माण की साधना है।” उनकी दृष्टि में मजदूर और पूंजीपति विरोधी नहीं, बल्कि एक ही राष्ट्रीय उद्देश्य के पूरक हैं।
 
आज भारतीय मजदूर संघ विश्व का सबसे बड़ा श्रमिक संगठन है जो उनके संगठन-कौशल और भारतीय चिंतन की स्थायित्व शक्ति का प्रमाण है।
 
 
विद्यार्थी, किसान, स्वदेशी और ग्राहक आंदोलन के निर्माता
दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने संगठन निर्माण को बहुआयामी रूप दिया।
 
 
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद
उन्होंने युवाओं को राष्ट्र–निर्माण का वाहक मानते हुए विद्यार्थी परिषद को वैचारिक दिशा दी। उनका कहना था कि “राष्ट्र का भविष्य उसके विद्यार्थियों की चेतना में अंकुरित होता है।” अखिला भारतीय विद्यार्थी परिषद के माध्यम से उन्होंने शिक्षा में संस्कार और राष्ट्रनिष्ठा के समन्वय का कार्य किया।
 
 
भारतीय किसान संघ
किसानों के बीच जाकर उन्होंने बताया कि भारतीय कृषि केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक कर्म है। उन्होंने किसान को “अन्नदाता” के साथ “राष्ट्र-दाता” का गौरव प्रदान किया।
 
 
स्वदेशी जागरण मंच
1990 के दशक में जब वैश्वीकरण की आँधी आई, तब ठेंगड़ी जी ने “स्वदेशी” के स्वर को सशक्त किया। उन्होंने कहा “आर्थिक स्वतंत्रता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता अधूरी है।”
यह मंच आज भी भारत की आत्मनिर्भरता के संघर्ष का वैचारिक आधार है।
 
 
अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत
ठेंगड़ी जी का संगठन दृष्टिकोण समाज के प्रत्येक वर्ग तक विस्तृत था। उन्होंने यह अनुभव किया कि आधुनिक उपभोक्तावादी व्यवस्था में ग्राहक प्रायः शोषण का शिकार होता है। इसी भावना से उन्होंने “अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत” की परिकल्पना की जो उपभोक्ताओं के अधिकारों, नैतिक व्यापार और सामाजिक उत्तरदायित्व पर आधारित थी। उनका विश्वास था कि ग्राहक भी राष्ट्र–निर्माण की प्रक्रिया का अंग है।
“ग्राहक केवल खरीददार नहीं, वह चरित्रवान समाज का निर्माता है।” इस संगठन के माध्यम से उन्होंने “स्वदेशी उपभोग” और “नैतिक व्यापार” के विचार को प्रचारित किया, जो भारतीय अर्थदर्शन का मूल है।
 
 
विचार और दर्शन : ‘तीसरा मार्ग’ और समग्र मानव दर्शन
ठेंगड़ी जी ने न तो पूंजीवाद को स्वीकार किया, न साम्यवाद को। उन्होंने दोनों को विदेशी और असंतुलित विचारधाराएँ माना। उन्होंने प्रस्तुत किया “तीसरा मार्ग - भारतीय मॉडल”, जो नैतिकता, सहकारिता और सामाजिक न्याय पर आधारित था। वे पंडित दीनदयाल उपाध्याय के “समग्र मानवदर्शन” के प्रमुख व्याख्याकार रहे।
 
उनका दर्शन यह था कि आर्थिक नीतियों का अंतिम लक्ष्य व्यक्ति का समग्र विकास होना चाहिए। भौतिक, मानसिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक, चारों स्तरों पर। उन्होंने कहा “विचार की सफलता तब है जब वह समाज में संस्कार बन जाए।”
आपातकाल (1975–77) में जब संघ पर प्रतिबंध लगा और लोकतांत्रिक मूल्यों पर आघात हुआ, तब ठेंगड़ी जी ने साहस और संयम दोनों के साथ कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन किया। उन्होंने संगठन को दमन के दौर में भी स्थिर बनाए रखा और लोकतंत्र की पुनःस्थापना के लिए वैचारिक नेतृत्व दिया।
 
उनका कहना था “संघ का कार्य व्यक्ति नहीं, व्यवस्था बनाता है इसलिए उसे कोई सत्ता समाप्त नहीं कर सकती।”
ठेंगड़ी जी अत्यंत अध्ययनशील और गंभीर चिंतक थे। उनके ग्रंथों में भारतीय दृष्टि का गहन विश्लेषण मिलता है। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं-
_The Third Way,_
_Capitalism, Communism and Hinduism,_
_Workers and Employers,_
_Synthesis of Ideologies,_
_Economic Thinking of Mahatma Gandhi_
इन पुस्तकों में उन्होंने आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विमर्श को भारतीय दृष्टिकोण से पुनर्परिभाषित किया। उनका लेखन बताता है कि यदि विचार संस्कारित हो, तो वह युग की दिशा बदल सकता है।
 
 
जीवन का उत्तरार्ध और प्रेरक विरासत
14 अक्टूबर 2004 को दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का निधन हुआ। परंतु उनका जीवन स्वयं में एक विचार–ग्रंथ है जो आज भी लाखों कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणा बनकर जीवित है।
उनकी विरासत केवल संगठनों के रूप में नहीं, बल्कि उस संस्कार में जीवित है जो प्रत्येक भारतीय को राष्ट्रसेवा का मार्ग दिखाती है।
 
 
संगठन ही साधना, राष्ट्र ही लक्ष्य
दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का जीवन यह सिखाता है कि संगठन-निर्माण एक तपस्या है। उन्होंने न सत्ता चाही, न प्रसिद्धि केवल राष्ट्र की सेवा को जीवन का अंतिम उद्देश्य माना।
वे कहते थे “संगठन ही साधना है, राष्ट्र ही ईश्वर है, सेवा ही पूजा है।”
आज जब भारत आत्मनिर्भरता, स्वदेशी अर्थनीति और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की दिशा में आगे बढ़ रहा है, तब ठेंगड़ी जी का जीवन-दर्शन और संगठन-दृष्टि पहले से अधिक प्रासंगिक प्रतीत होते हैं।
वे सच्चे अर्थों में राष्ट्रवाद के कर्मयोगी, संगठन के शिल्पकार और भारतीय चिंतन के कालजयी दूत थे।