पुस्तक समीक्षा - जंगल सत्याग्रह एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    01-Nov-2025
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jungle satya grah
 
 
-डॉ. भूपेन्द्र कुमार सुल्लेरे
 
भारत के स्वतंत्रता संग्राम का एक कम चर्चित लेकिन अत्यंत महत्वपूर्ण अध्याय रहा है — जंगल सत्याग्रह। यह केवल अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध संघर्ष नहीं था, बल्कि भारतीय जनजीवन, संस्कृति और स्वराज्य की आत्मा को पुनः प्रतिष्ठित करने का भी अभियान था। डॉ. श्रीरंग गोडबोले की पुस्तक “जंगल सत्याग्रह एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ” इस ऐतिहासिक आंदोलन को एक नवीन दृष्टि देती है, जिसमें स्वाधीनता के इस लोकाधारित अध्याय को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वैचारिक और संगठनात्मक योगदान से जोड़ा गया है।
 
 
पुस्तक की विषयवस्तु
यह पुस्तक मुख्यतः 1930–32 के बीच चले जंगल सत्याग्रह के ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आयामों को उजागर करती है। लेखक ने इस आंदोलन को केवल वन संसाधनों के अधिकार तक सीमित नहीं रखा, बल्कि इसे भारत के स्वराज्य और आत्मनिर्भरता के संघर्ष के रूप में प्रस्तुत किया है।
 
 
पुस्तक में विशेष रूप से निम्नलिखित बिंदुओं पर गहन विवेचना की गई है —
जंगल सत्याग्रह का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य — 1930 के दशक में ब्रिटिश वन नीति ने जनजातीय और ग्रामीण समुदायों को उनके पारंपरिक अधिकारों से वंचित कर दिया था। इसके विरुद्ध जिस असंगठित जनाक्रोश ने आकार लिया, वही जंगल सत्याग्रह के रूप में सामने आया।
 
 
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भागीदारी — लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि संघ के स्वयंसेवकों ने इस आंदोलन में प्रत्यक्ष भाग लेकर न केवल संगठनात्मक अनुशासन का परिचय दिया, बल्कि समाज के हाशिए पर खड़े वर्गों को राष्ट्र की मुख्य धारा से जोड़ने का कार्य किया।
 
सामाजिक एकात्मता का आयाम — संघ ने इस आंदोलन को केवल “वनाधिकार” तक सीमित नहीं रहने दिया। इसने इसे “राष्ट्रधर्म का प्रश्न” बना दिया, जिसमें समाज के विभिन्न वर्गों में समरसता और आत्मबोध की भावना का प्रसार हुआ।
संघ का दृष्टिकोण — लेखक के अनुसार, संघ का मानना था कि स्वराज केवल राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं, बल्कि “आत्मा का स्वराज” है — जहाँ व्यक्ति, समाज और राष्ट्र अपने सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों पर आत्मनिर्भर बनें।
 
लेखन शैली और स्रोत
डॉ. श्रीरंग गोडबोले ने ऐतिहासिक दस्तावेजों, पत्रों, संघ साहित्य और समकालीन पत्र-पत्रिकाओं का उल्लेख कर इस विषय को प्रमाणिकता प्रदान की है। भाषा सुसंगठित, शोधपरक और भावप्रधान है। वे तथ्य और विचार के बीच संतुलन रखते हुए एक ऐसी ऐतिहासिक चेतना विकसित करते हैं, जो पाठक को केवल जानकारी नहीं देती, बल्कि सोचने के लिए प्रेरित करती है।
 
 
पुस्तक का मूल्यांकन
यह कृति केवल एक ऐतिहासिक विवरण नहीं, बल्कि राष्ट्रवादी विमर्श का पुनर्पाठ है। जहाँ वामपंथी और औपनिवेशिक इतिहासकारों ने जंगल सत्याग्रह को एक सीमित आर्थिक संघर्ष बताया, वहीं डॉ. गोडबोले ने उसे “राष्ट्रीय पुनरुत्थान का सामाजिक आंदोलन” सिद्ध किया है।
पुस्तक का सबसे सशक्त पक्ष यह है कि लेखक ने संघ के कार्यकर्ताओं की भूमिका को न तो अतिशयोक्ति के रूप में प्रस्तुत किया है, न ही उपेक्षित रखा है। उन्होंने तथ्यात्मकता के साथ यह दिखाया है कि संघ ने ग्रामीण भारत में संगठन, सेवा और समरसता के माध्यम से “स्वराज्य की जड़ों” को सींचा।
  
डॉ. श्रीरंग गोडबोले की “जंगल सत्याग्रह एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ” भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उस अनदेखे अध्याय को उजागर करती है, जहाँ संघ का राष्ट्रवाद केवल विचार नहीं, कर्म का प्रत्यक्ष रूप बनकर सामने आता है। यह पुस्तक उन सभी के लिए अनिवार्य पठनीय है, जो भारतीय स्वाधीनता के सांस्कृतिक, सामाजिक और वैचारिक पहलुओं को गहराई से समझना चाहते हैं।
 
यह कृति हमें स्मरण कराती है कि स्वराज केवल शासन परिवर्तन नहीं, बल्कि समाज की आत्मचेतना का पुनर्जागरण है, और यही संदेश राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जंगल सत्याग्रह के माध्यम से दिया था।
 
यह पुस्तक भारतीय राष्ट्रवाद, ग्रामीण चेतना और संघ की समाज-निर्माण प्रक्रिया के त्रिवेणी-संगम का जीवंत दस्तावेज़ है — जो इतिहास को पुनः भारतीय दृष्टि से पढ़ने का आह्वान करती है।