जगदेव राम उरांव : वनवासी चेतना के पुरोधा और सामाजिक समरसता के प्रेरणास्रोत

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    09-Oct-2025
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Jagdev Ram Oraon
 
 

डॉ. भूपेन्द्र कुमार सुल्लेरे

 

भारत के जनजातीय समाज के उत्थान, संगठन और स्वाभिमान के पुनरुद्धार में जिन महान व्यक्तित्वों ने अपने जीवन का प्रत्येक क्षण समर्पित किया, उनमें जगदेव राम उरांव का नाम अत्यंत आदर और श्रद्धा से लिया जाता है। वे वनवासी कल्याण आश्रम के द्वितीय संगठन मंत्री के रूप में न केवल एक संगठनकर्ता थे, बल्कि भारतीयता और जनजातीय अस्मिता के सेतु-पुरुष भी थे।

 

आज ही के दिन यानी 9 अक्तूबर 1949 को उनका जन्म छत्तीसगढ़ की पवित्र धरती पर हुआ वही धरती जहाँ जनजातीय परंपरा, प्रकृति-पूजा और सामाजिक समरसता का अनूठा संगम देखने को मिलता है।

 

प्रारंभिक जीवन : सरलता और सेवा की नींव

 

छत्तीसगढ़ के ग्राम्य परिवेश में जन्मे जगदेव राम उरांव बाल्यकाल से ही कर्मनिष्ठ, अनुशासित और त्यागमय जीवन जीने वाले थे। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गाँव में ही प्राप्त की, परंतु उनका हृदय सदैव समाज की पीड़ा और पिछड़ेपन से आंदोलित रहा।

 

वनवासी समाज में फैली अशिक्षा, गरीबी और सामाजिक दूरी ने उन्हें गहराई से प्रभावित किया। उन्होंने निश्चय किया कि जीवन का लक्ष्य केवल आत्मकल्याण नहीं, बल्कि वनवासी समाज का समग्र पुनरुत्थान होगा।

 

वनवासी कल्याण आश्रम से जुड़ाव

 

1952 में स्थापित वनवासी कल्याण आश्रम का उद्देश्य था "भारत के मूल निवासियों के सांस्कृतिक, शैक्षिक और आर्थिक उत्थान के लिए संगठनात्मक कार्य करना।"

 

जगदेव राम उरांव इस मिशन से प्रारंभ से ही जुड़े और शीघ्र ही अपने परिश्रम, व्यवहार-कौशल और समर्पण से संगठन के प्रमुख स्तंभ बन गए।

 

उनकी कार्यशैली सेवा ही साधना है” की थी। वे गाँव-गाँव जाकर समाज के युवाओं को शिक्षित करने, मातृशक्ति को संगठित करने और जनजातीय संस्कृति के संरक्षण के लिए प्रेरित करते रहे।

 

द्वितीय संगठन मंत्री के रूप में योगदान

 

वनवासी कल्याण आश्रम के द्वितीय संगठन मंत्री के रूप में जगदेव राम उरांव ने संगठन को देशव्यापी रूप देने में ऐतिहासिक भूमिका निभाई।

 

उन्होंने मध्य भारत से लेकर पूर्वोत्तर तक सैकड़ों जनजातीय अंचलों में संपर्क स्थापित किया। जनजातीय शिक्षा केंद्र, छात्रावास, स्वयं सहायता समूह और कृषि-आधारित आजीविका योजनाएँ प्रारंभ कीं।

 

उनके नेतृत्व में संगठन ने “वनवासी एकता” के सांस्कृतिक और राष्ट्रीय सूत्र को मजबूत किया। उनका मानना था कि जनजातीय समाज भारत की आत्मा है इसे मुख्यधारा में लाना नहीं, बल्कि इसकी अपनी परंपरा को राष्ट्रीय धारा से जोड़ना हमारा कर्तव्य है।”

 

जनजातीय अस्मिता और सांस्कृतिक गौरव का पुनर्जागरण

 

जगदेव राम उरांव ने जनजातीय संस्कृति को कभी पिछड़ेपन का प्रतीक नहीं माना, बल्कि इसे भारत की प्राचीन सभ्यता की जड़ बताया।

 

उन्होंने कहा था वनवासी जीवन केवल जंगलों में रहने की बात नहीं, यह प्रकृति के साथ एकात्मता का दर्शन है।”

 

उन्होंने “सरल जीवन - उच्च विचार” की परंपरा को जनजातीय चेतना से जोड़ा और लोककला, नृत्य, गीत, देवी-देवता तथा सामुदायिक जीवन को राष्ट्रीयता के सूत्र में पिरोया।

 

सामाजिक एकता और राष्ट्रदृष्टि

 

जगदेव राम उरांव की सोच सामाजिक सुधार तक ही सीमित नहीं थी। वे एक राष्ट्रदृष्टा थे जो मानते थे कि भारत का भविष्य तभी उज्ज्वल होगा जब वनवासी, ग्रामवासी और नगरवासी समान रूप से राष्ट्रनिर्माण में सहभागी बनें।

 

उनकी पहल पर अनेक स्थानों पर वनवासीमूलवासी संवाद कार्यक्रम, संस्कृति पर्व और जनजागरण यात्राएँ आयोजित हुईं। उन्होंने अपने जीवन से यह सिद्ध किया कि “सच्चा राष्ट्रसेवक वही है जो समाज के अंतिम व्यक्ति के साथ खड़ा हो।”

 

स्मृति में अमर व्यक्तित्व

 

जगदेव राम उरांव आज भले ही शारीरिक रूप से हमारे बीच नहीं हैं, किंतु उनका कार्य आज भी वनवासी समाज के प्रत्येक कार्यकर्ता में जीवित है।

 

उनकी जन्म जयंती केवल स्मरण का अवसर नहीं, बल्कि यह संकल्प लेने का दिन है कि हम उनके बताए मार्ग पर चलते हुए वनवासी समाज के सम्मान, आत्मनिर्भरता और सांस्कृतिक गौरव की रक्षा करें।

 

जगदेव राम उरांव ने हमें सिखाया कि समाज को बदलने के लिए वाणी नहीं, कर्म चाहिए और कर्म तब ही प्रभावी होता है जब उसमें सेवा का भाव और राष्ट्र के प्रति निष्ठा हो।”