7 अक्टूबर 1907 : क्रांतिकारी दुर्गा भाभी का जन्म

धन, संपत्ति और पूरा जीवन राष्ट्रसेवा में समर्पित

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    07-Oct-2025
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Durga Devi
 

रमेश शर्मा

 

स्वतंत्रता के जिस शुभ्र प्रकाश का आज समस्त भारतवासी आनंद ले रहे हैं, उसके लिए असंख्य बलिदान हुए। यह बलिदान दो प्रकार के थे एक ओर क्रांतिकारियों ने सीधे संघर्ष में अपने प्राणों की आहुति दी, और दूसरी ओर उनके सहयोगियों ने अपना संपूर्ण जीवन राष्ट्रसेवा में समर्पित कर दिया। सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी आंदोलन की वीरांगना दुर्गा भाभी ऐसी ही बलिदानी थीं। उन्होंने प्रत्यक्ष संघर्ष भी किया और क्रांतिकारियों की रक्षा में भी असाधारण भूमिका निभाई। स्वतंत्रता के बाद वे गुमनामी में रहीं, पर उनका संकल्प कभी नहीं डिगा। उन्होंने नई पीढ़ी के निर्माण के लिए विद्यालय स्थापित किया।

 

दुर्गा भाभी वही थीं जिन्होंने काकोरी विद्रोह के बाद क्रांतिकारी सरदार भगत सिंह और राजगुरु को सुरक्षित कलकत्ता पहुंचाया था। ऐसी अद्भुत सामर्थ्य, साहस और समझ से संपन्न दुर्गा भाभी का जन्म 7 अक्टूबर 1907 को उत्तर प्रदेश के प्रयागराज क्षेत्र के ग्राम शहजादपुर में हुआ था। उनका परिवार आर्य समाज से जुड़ा हुआ और अत्यंत संपन्न था। पिता पंडित बांके बिहारी इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाजिर थे, और दादा पंडित शिवशंकर शहजादपुर के जमींदार थे। उनके जन्म की पृष्ठभूमि से ही परिवार की समृद्धि और सांस्कृतिकता का अनुमान लगाया जा सकता है। शारदीय नवरात्र के प्रथम दिन जन्म होने पर उनका नाम दुर्गा देवी रखा गया।

 

दुर्गा देवी बचपन से ही ऊर्जावान और कुशाग्र बुद्धि थीं, और परिवार में सबकी लाड़ली थीं। उस समय बाल विवाह प्रथा प्रचलित थी। 1917 में, मात्र दस वर्ष की आयु में, उनका विवाह लाहौर के भगवतीचरण वोहरा से हुआ। दो वर्ष तक वे मायके में रहीं और 1918 में गौना हुआ, जिसके बाद वे लाहौर आ गईं। मायके की तरह ससुराल में भी वे सभी की प्रिय बनीं। उन पर किसी प्रकार का सामाजिक प्रतिबंध नहीं था। यह परिवार भी संपन्न था भगवतीचरण के पिता शिवचरण वोहरा रेलवे में उच्च पद पर थे और अंग्रेज सरकार से 'राय साहब' की उपाधि प्राप्त कर चुके थे।

 

यद्यपि परिवार अंग्रेजों का विश्वस्त माना जाता था, परंतु भीतर से यह आर्य समाज के विचारों से प्रेरित और राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत था। स्वत्व चेतना वाले समाजसेवियों को इस परिवार से आर्थिक सहयोग मिलता था। इसी वातावरण में पले भगवतीचरण वोहरा स्वतंत्रता संग्राम से सीधे जुड़ना चाहते थे। उन्होंने क्रांतिकारियों से संपर्क किया और “हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन” में सम्मिलित हो गए।

 

1920 में पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियां और तेज कर दीं। उन्हें संगठन का प्रचार सचिव बनाया गया। उनकी पत्नी दुर्गा देवी भी सक्रिय हुईं। तब उनकी आयु मुश्किल से पंद्रह वर्ष थी। उन्हें संपर्क और सूचना के आदान-प्रदान का कार्य सौंपा गया और वे “दुर्गा भाभी” के नाम से प्रसिद्ध हुईं। छोटी आयु के कारण उन पर संदेह नहीं होता था, जिससे वे अपना कार्य सहजता से पूरा कर लेतीं।

 

आंदोलन में सक्रिय रहते हुए भगवतीचरण ने 1923 में स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की और उसी वर्ष दुर्गा भाभी ने *प्रभाकर* की उपाधि प्राप्त की। विवाह के समय उन्हें ससुराल से चालीस हजार और मायके से पाँच हजार रुपये उपहार में मिले थे दोनों ने वह समस्त धन राष्ट्रसेवा में लगा दिया। 1917 के पैंतालीस हजार रुपये का मूल्य आज के करोड़ों के बराबर माना जा सकता है।

 

दुर्गा भाभी बड़ी सावधानी से अपना कार्य कर रही थीं, पर सांडर्स वध के बाद उन पर संदेह हुआ। यह वध लाला लाजपत राय के बलिदान का प्रतिशोध था। ब्रिटिश अधिकारी जॉन पी. सांडर्स के आदेश पर हुए लाठीचार्ज में लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई थी। इसके बाद क्रांतिकारियों ने सांडर्स को मार गिराया। ब्रिटिश सरकार बौखला उठी और बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी अभियान शुरू किया।

 

दो दिन बाद दुर्गा भाभी ने ही भगत सिंह और राजगुरु को सुरक्षित कलकत्ता पहुंचाया। भगत सिंह और राजगुरु ने भेष बदल लिया था। दुर्गा भाभी ने भी नाम और रूप बदला, और तीन रेल टिकट लेकर यात्रा आरंभ की। उन्होंने भगत सिंह की पत्नी की भूमिका निभाई, जबकि राजगुरु नौकर के वेश में थे। तीनों लाहौर से भटिंडा होते हुए कानपुर पहुंचे और फिर कलकत्ता रवाना हुए। पूरी यात्रा के दौरान कई बार तलाशी हुई, पर दुर्गा भाभी की सूझबूझ से सब सुरक्षित रहावे अपने छोटे बेटे को भी साथ लाई थीं, जिससे उन पर किसी को संदेह नहीं हुआ

 

हालांकि ब्रिटिश सरकार के पास कोई ठोस प्रमाण नहीं था, पर संदेह के कारण उन पर निगरानी बढ़ा दी गई। इसी बीच लाहौर जेल में अनशन के दौरान जतिन दास का बलिदान हुआ। उनके शव को अंतिम संस्कार हेतु कलकत्ता ले जाने की जिम्मेदारी दुर्गा भाभी को दी गई। वे शव के साथ लाहौर से कलकत्ता रवाना हुईं। मार्ग में हजारों लोग स्टेशनों पर श्रद्धांजलि देने पहुंचे। इस यात्रा के बाद वे ब्रिटिश सरकार की नजर में आ गईं। उन्हें गिरफ्तार कर तीन वर्ष की सजा दी गई।

 

असेम्बली बमकांड के बाद जब भगत सिंह ने स्वयं गिरफ्तारी दी, तो मुकदमे का पूरा खर्च दुर्गा भाभी ने उठाया। उन्होंने अपने सारे गहने बेचकर वकीलों की फीस और अन्य खर्च पूरे किए। स्वतंत्रता आंदोलन इतिहास बन गया, तो दुर्गा भाभी ने अहिंसक आंदोलन से जुड़ने का निर्णय लिया। उन्होंने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया और पुनः गिरफ्तार हुईं।

 

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद लाहौर भारत से अलग हो गया। दुर्गा भाभी का परिवार गाजियाबाद आ बसा। शुरू में किसी सरकार या समाज ने उनकी सुध नहीं ली। वे सामान्य नागरिक की तरह जीवन बिताने लगीं। बाद में वे लखनऊ आईं और गरीब बच्चों के लिए एक विद्यालय खोला। वे लखनऊ और गाजियाबाद के बीच आना-जाना करती रहीं। अंततः 15 अक्टूबर 1999 को, 92 वर्ष की आयु में, उनका निधन हुआ।

 

उनके द्वारा आरंभ किया गया विद्यालय आज भी संचालित है

शत-शत नमन क्रांतिकारी दुर्गा भाभी को।