वीरांगना रानी दुर्गावती : नारी शक्ति, स्वराज और जनजातीय गौरव की अमर ज्योति

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    05-Oct-2025
Total Views |

Rani Durgavati
 
 

डॉ. भूपेन्द्र कुमार सुल्लेरे

 

भारत के इतिहास में कुछ नाम ऐसे हैं, जो केवल किसी राज्य या क्षेत्र तक सीमित नहीं रहते, बल्कि राष्ट्र की चेतना और आत्मबल के प्रतीक बन जाते हैं। गढ़-मंडला की अमर रानी दुर्गावती ऐसा ही एक तेजस्वी नाम हैं जिनका जीवन साहस, नेतृत्व और मातृभूमि के प्रति अटूट निष्ठा की गाथा है। वे भारतीय नारी के उस स्वरूप की प्रतिनिधि हैं, जिसमें करुणा और कठोरता, नीति और पराक्रम, सेवा और स्वाभिमान एक साथ प्रकट होते हैं।

 

साहस की संकल्पना

 

रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर 1524 को कालिंजर दुर्ग (वर्तमान उत्तर प्रदेश) के चंदेल राजवंश में हुआ। पिता राजा कीरत राय चंदेल ने उन्हें बचपन से ही युद्धकला, राजनीति और राज्य संचालन की शिक्षा दी। घुड़सवारी, धनुर्विद्या और शस्त्र संचालन में पारंगत रानी ने यह सिद्ध किया कि नारी केवल गृह की रक्षक नहीं, बल्कि राज्य और संस्कृति की संरक्षिका भी हो सकती है।

 

विवाह और गढ़-मंडला की रानी के रूप में उदय

 

दुर्गावती का विवाह गढ़-मंडला (मध्यप्रदेश) के गोंड राजा दलपत शाह से हुआ। यह विवाह केवल दो वंशों का नहीं, बल्कि आर्य और अनार्य संस्कृति के समन्वय का प्रतीक था जहाँ चंदेलों की नीति और गोंडों की लोकशक्ति एक साथ आई। पति की मृत्यु के बाद उन्होंने तीन वर्षीय पुत्र नारायण सिंह की अभिभावक बनकर स्वयं शासन की बागडोर संभाली। रानी ने अपने पराक्रम, न्यायप्रियता और दूरदर्शी नीतियों से गढ़-मंडला को एक संगठित, समृद्ध और सशक्त राज्य के रूप में विकसित किया।

 

सुशासन और प्रजा कल्याण

 

रानी दुर्गावती का शासन जनकल्याण आधारित राजधर्म का उदाहरण था। उन्होंने कृषि सुधार, सिंचाई योजनाएँ, सरोवर निर्माण, सड़कों और व्यापार मार्गों के विकास को बढ़ावा दिया। उनके काल में गढ़-मंडला कला, संस्कृति और शिक्षा का केंद्र बना। उन्होंने प्रशासन में न्याय, समरसता और महिला भागीदारी सुनिश्चित की जो आज के लोकतांत्रिक शासन सिद्धांतों से मेल खाती है।

 

विशेष घटना : सिंगारगढ़ का युद्ध (1564)

 

1564 ईस्वी में मुगल सम्राट अकबर के सूबेदार आसफ खाँ ने गढ़-मंडला पर आक्रमण किया। रानी ने किसी भी प्रकार का समझौता न करते हुए स्वयं युद्ध का नेतृत्व किया। उनकी सेना ने सिंगारगढ़ दुर्ग से मुगलों का डटकर सामना किया। रानी ने अपने सेनानायक अजीतपाल और सैनिकों के साथ दुश्मन को कई बार परास्त किया, परन्तु जब मुगल सेना ने चारों ओर से घेर लिया, तो उन्होंने आत्मसमर्पण के बजाय आत्म बलिदान का मार्ग चुना।

 

24 जून 1564 को रानी दुर्गावती ने अपनी तलवार स्वयं अपने वक्ष पर रख दी और कहा स्वाभिमान की रक्षा में मृत्यु ही जीवन है।” यह घटना भारतीय इतिहास में नारी स्वाभिमान की सबसे तेजस्वी ज्योति के रूप में अंकित है।

 

रानी दुर्गावती और जनजातीय गौरव

 

रानी दुर्गावती केवल एक योद्धा नहीं, बल्कि जनजातीय अस्मिता की प्रतीक थीं। उन्होंने समाज को एकीकृत कर यह दिखाया कि जनजातीय संस्कृति भारत की आत्मा का अविभाज्य अंग है।

 

आज जब भारत “जनजातीय गौरव दिवस” मनाता है, तब रानी दुर्गावती का नाम रानी कमलापति और भगवान बिरसा मुंडा जैसे नायकों की श्रेणी में सम्मानपूर्वक लिया जाता है। उनका शासन भारतीय जनजातीय समाज के सांस्कृतिक पुनर्जागरण का काल था।

 

समकालीन दृष्टि : नारी सशक्तिकरण का प्रतीक

 

रानी दुर्गावती का जीवन आज के भारत में नारी नेतृत्व और स्वाभिमान की प्रेरणा है। उनका उदाहरण यह सिद्ध करता है कि नारी केवल संवेदना की नहीं, बल्कि निर्णय और नेतृत्व की धुरी भी है। नारी शक्ति वंदन अभियान”, “बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ” जैसे कार्यक्रम रानी दुर्गावती की उसी परंपरा का आधुनिक रूप हैं, जिसमें नारी को राष्ट्र निर्माण का केंद्र माना गया है।

 

उनका आदर्श हर युवा भारतीय महिला को यह संदेश देता है कि सत्ता और सेवा, दोनों ही नारी के हाथों में सुरक्षित हैं।”

 

अमर प्रेरणा की ज्योति

 

रानी दुर्गावती का जीवन केवल इतिहास का अध्याय नहीं, बल्कि राष्ट्र की आत्मा का गीत है। उन्होंने नारीत्व को मातृत्व से आगे बढ़ाकर नेतृत्व, न्याय और बलिदान के शिखर पर स्थापित किया। उनकी स्मृति में आज भी रानी ताल, दुर्गावती विश्वविद्यालय (जबलपुर) और अनेक संस्थान गर्व से उनका नाम धारण करते हैं।

 

5 अक्टूबर को हम केवल उनका जन्म नहीं, बल्कि भारतीय स्त्रीत्व, जनजातीय गौरव और राष्ट्र-स्वाभिमान के पुनर्जागरण का उत्सव मनाते हैं।

 

जो धरती के लिए जिए, जो धर्म के लिए लड़े,

वही रानी दुर्गावती - भारत की अमर नारी रहे।”