समीक्षक: पंकज सोनी
यह पुस्तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के छठे सरसंघचालक डॉ मोहन राव भागवत जी द्वारा विभिन्न अवसरों पर दिए गए भाषणों का संग्रह है। इसमें ‘हिंदुत्व का विचार’, ‘भारत की प्राचीनता’, ‘हमारी राष्ट्रीयता’, ‘समाज का आचरण’, ‘स्त्री सशक्तीकरण’, ‘विकास की अवधारणा’, ‘अहिंसा का सिद्धांत’, ‘बाबा साहेब आंबेडकर’ और ‘भारत का भविष्य’ जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर मोहन भागवत जी के व्याख्यान संकलित हैं।
पुस्तक का मुख्य उद्देश्य पाठकों के विचारों को परिष्कृत करना और उनमें राष्ट्रीय चेतना जगाकर ‘यशस्वी भारत’ की कल्पना को साकार करना है। यही दृष्टिकोण संघ की वैचारिकी तथा भारतीय सभ्यता की सांस्कृतिक एकात्मता को व्यापक रूप से समझने का प्रयत्न करता है।
पुस्तक की प्रस्तुति सहज एवं स्पष्ट है। चूँकि यह भाषणों का संग्रह है, इसलिए लेखन शैली आत्मीय और संवादात्मक बनी हुई है। पुस्तक की भाषा “प्रांजल और प्रवाह निष्कंटक” है, अर्थात् सरल और प्रवाहपूर्ण है। प्रत्येक अध्याय पठनीय है तथा उदाहरणों और दृष्टांतों के माध्यम से विचार प्रस्तुत किए गए हैं।
इसके अलावा, माधव गोविंद वैद्य जी द्वारा लिखी गई प्रस्तावना पाठकों को विषय में प्रवेश के लिए ठोस पृष्ठभूमि प्रदान करती है।
प्रमुख विचार एवं दृष्टिकोण
हिंदुत्व और राष्ट्रीय एकात्मता:
डॉ. मोहन भागवत जी हिंदुत्व को भारत की विविध परंपराओं का सामूहिक मूल्यबोध मानते हैं। वे इसे “विविधता में एकता” का प्रतीक बताते हुए कहते हैं, “जो भारत माता का पुत्र है, वह हिंदू है… जिन लोगों ने इस संस्कृति को यहां तक लाने का पुरुषार्थ किया, वे सभी हिंदू हैं।” उनका यह दृष्टिकोण हिंदू सभ्यता को समाहित कर समग्र राष्ट्रीय पहचान पर बल देता है।
राष्ट्रगौरव की आकांक्षा:
भाषणों का मूल संदेश राष्ट्र को संपन्न, सामर्थ्यवान और शक्तिशाली बनाकर ‘यशस्वी भारत’ बनाना है। भागवत जी कहते हैं कि हमारी राष्ट्रीय आकांक्षा यशस्वी भविष्य की ओर अग्रसर होनी चाहिए, जो व्यक्तिगत सफलता से बढ़कर देश के सामूहिक विकास का लक्ष्य निर्धारित करती है।
समाज और विकास:
पुस्तक में शिक्षा, जनसंख्या प्रबंधन, प्रशासन-प्रजा सहयोग तथा स्त्री-सशक्तीकरण जैसे समाज-विकास संबंधी अनेक विषयों पर विचार किया गया है। उदाहरण के तौर पर, उन्होंने महिला सशक्तीकरण और सामाजिक आचरण को राष्ट्रीय विकास का अभिन्न हिस्सा माना है। इसके अतिरिक्त, अनुशासन के महत्व को रेखांकित करने के लिए “द इंक्रेडिबल जापानीज” जैसी पुस्तकों का उल्लेख भी किया है।
संघ और व्यक्ति निर्माण:
भागवत जी संघ को केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एक विचार के रूप में प्रस्तुत करते हैं। उनकी मान्यता है कि संघ का मूल कार्य “व्यक्ति निर्माण” करना है, ताकि अपेक्षित सामाजिक और राष्ट्रीय परिवर्तन साकार हो सकें। वे स्पष्ट करते हैं कि संघ के सभी कार्यों में इसके संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी की सोच आज भी प्रतिबिंबित है। यह संदेश विशेष रूप से संगठन की महत्ता और व्यक्तिगत उत्तरदायित्व पर जोर देता है।
पुस्तक की सामाजिक तथा राष्ट्रीय संदर्भ में प्रासंगिकता
समकालीन भारतीय परिदृश्य में राष्ट्रीयता, सांस्कृतिक पहचान और संघ जैसी संस्थाओं पर बहस तीव्र है। ऐसी स्थिति में ‘यशस्वी भारत’ पुस्तक संघ की विचारधारा को स्पष्ट रूप से सामने लाकर आम भ्रांतियों को दूर करने का प्रयास करती है।
“जो जिज्ञासु संघ को समझना चाहते हैं, उनके लिए यह पुस्तक बहुत उपयोगी होगी।” इस प्रकार यह पुस्तक संघ की समसामयिक भूमिका एवं उसमें हो रहे परिवर्तनों की जानकारी देती है और एक संदर्भ ग्रंथ के रूप में काम करती है, जो राष्ट्रीय एकात्मता और संगठनात्मक दृष्टिकोण की समझ बढ़ाती है।
पुस्तक में समाहित प्रमुख संदेश
राष्ट्रभाव की जागृति:
पुस्तक का प्रमुख संदेश है कि देशवासियों में राष्ट्रीय आत्मचेतना जगानी चाहिए। जैसा लिखा है “यह पुस्तक पाठक के विचारों को परिष्कृत करेगी और समाज में ऐसे राष्ट्रभाव जाग्रत् करेगी।”
एकता एवं संगठन:
संघ का दर्शन है “हमारा काम सबको जोड़ने का है... संगठन ही शक्ति है।” पुस्तक समाज में सह-अस्तित्व और संगठनात्मक एकजुटता पर जोर देती है।
व्यक्ति निर्माण:
संघ का मूल लक्ष्य व्यक्ति निर्माण है, जिससे समाज और राष्ट्र की नींव मजबूत हो। भागवत जी कहते हैं कि “संघ का काम व्यक्ति निर्माण का है... व्यक्ति से समाज एवं समाज से राष्ट्र निर्मित होता है।” यह संदेश व्यक्तिगत विकास पर जोर देकर सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया बतलाता है।
संवाद और सहिष्णुता:
पुस्तक बताती है कि वैचारिक मतभेदों के बाद भी हम एक राष्ट्र के नागरिक हैं और सभी को मिलकर देश का निर्माण करना चाहिए। यह संदेश विविधता में एकता एवं संवाद की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
सारांशतः ‘यशस्वी भारत’ पुस्तक संघ की विचारधारा, भारतीय सभ्यता एवं राष्ट्र निर्माण पर आधारित विचारों का संग्रह है। इसकी सरल भाषा और व्यावहारिक प्रस्तुति इसे विचारशील पाठकों के लिए पठनीय बनाती है।
पुस्तक विशेष रूप से उन पाठकों के लिए उपयुक्त है जो संघ तथा हिंदुत्व की समग्र अवधारणा को समझना चाहते हैं। सामाजिक-राजनीतिक चिंतन करने वाले, शोधकर्ता और राष्ट्रीय पुनर्जागरण में रुचि रखने वाले पाठक इसे पढ़ सकते हैं।
संघ को जानने की जिज्ञासा रखने वालों के लिए यह पुस्तक “बहुत उपयोगी” सिद्ध होगी। ऐसे पाठक जिनके मन में राष्ट्रीय चेतना, संगठनात्मक सोच और भारतीय संस्कृति के प्रति जागरूकता है, वे इस पुस्तक से महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश एवं संदेश प्राप्त कर सकते हैं।