बाबा डॉ. कार्तिक उरांव : जनजातीय अस्मिता, आरक्षण और सांस्कृतिक स्वाभिमान के अग्रदूत

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    29-Oct-2025
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डॉ. भूपेन्द्र कुमार सुल्लेरे
 
भारत की जनजातीय चेतना के इतिहास में यदि किसी व्यक्ति ने शिक्षा, राजनीति और संस्कृति तीनों स्तरों पर जनजातियों के स्वत्व और सम्मान के लिए निरंतर संघर्ष किया, तो वह नाम है बाबा डॉ. कार्तिक उरांव।
वे केवल एक जनप्रतिनिधि नहीं, बल्कि एक ऐसी जीवंत प्रेरणा थे, जिन्होंने जनजातीय समाज को आत्मगौरव, आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता की दिशा में अग्रसर किया। उनका सम्पूर्ण जीवन “जनजातीय स्वराज” की भावना का प्रतीक रहा।
 
 
प्रारंभिक जीवन : संघर्ष से शिखर तक की यात्रा
 
डॉ. कार्तिक उरांव का जन्म 1924 में गुमला (अब झारखंड) जिले के करम टोली नामक गाँव में हुआ। वे उरांव जनजाति के गौरवशाली प्रतिनिधि थे। प्रारंभिक शिक्षा ग्रामीण वातावरण में प्राप्त करने के बाद उन्होंने उच्च शिक्षा की दिशा में कदम बढ़ाया और यह उस समय की दृष्टि से अद्भुत था, जब जनजातीय समाज में शिक्षा का अभाव था।
उन्होंने इंग्लैंड के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग की उच्च डिग्री प्राप्त की और भारत लौटकर समाज सेवा को अपना जीवन उद्देश्य बनाया।
 
 
जनजातीय समाज के लिए उनका दृष्टिकोण
 
बाबा उरांव का विश्वास था कि जनजातीय समाज केवल सरकारी योजनाओं से नहीं, बल्कि स्वाभिमान, शिक्षा और परिश्रम से सशक्त हो सकता है।
उन्होंने कहा था कि “जनजातीय जीवन की आत्मा उसके जंगल, जल और जमीन में बसती है, इन्हें बचाना ही जनजातीय अस्मिता की रक्षा है।” उनका यह विचार आज भी भारत की जनजातीय नीति के मूल में निहित है।
 
 
राजनीतिक जीवन : सेवा, संघर्ष और नीति निर्माण
 
स्वतंत्र भारत में डॉ. कार्तिक उरांव भारतीय संसद के कई बार सदस्य रहे और केंद्रीय मंत्री के रूप में उन्होंने शिक्षा, श्रम, जनजातीय कल्याण जैसे विभागों में कार्य किया।
उन्होंने संसद में हर बार यह मुद्दा उठाया कि “आरक्षण केवल उसी को मिलना चाहिए जो मूल रूप से जनजातीय पहचान रखता है, धर्मांतरण के बाद उस व्यक्ति को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए।”
यह विचार केवल राजनीतिक वक्तव्य नहीं था, बल्कि संवैधानिक न्याय और सामाजिक समानता का प्रतिपादन था।
 
 
आरक्षण पर उनका दृष्टिकोण : धर्मांतरण और सामाजिक न्याय
 
बाबा उरांव ने दृढ़तापूर्वक कहा कि आरक्षण का उद्देश्य सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक वंचना की भरपाई है, न कि राजनीतिक लाभ या धर्मांतरण को प्रोत्साहन देना।
उन्होंने इस बात पर बल दिया कि “यदि कोई व्यक्ति धर्म परिवर्तन करता है, तो वह अपनी जनजातीय सांस्कृतिक अस्मिता छोड़ देता है। ऐसे व्यक्ति को जनजातीय आरक्षण का लाभ देना न्यायसंगत नहीं है।”
उनकी यह सोच आज भी भारत में चल रही ‘धर्मांतरण बनाम आरक्षण’ की बहस में सर्वाधिक प्रासंगिक है।
 
 
शिक्षा और आत्मनिर्भरता के लिए उनका योगदान
 
डॉ. कार्तिक उरांव ने अपने जीवनकाल में शिक्षा को जनजातीय समाज के पुनर्जागरण का मूल माध्यम माना। उन्होंने अनेक विद्यालयों, छात्रावासों और शिक्षा संस्थानों की स्थापना में सहयोग किया।
उनकी प्रेरणा से जनजातीय युवाओं में सरकारी सेवाओं, तकनीकी शिक्षा और उच्च अध्ययन की भावना जागृत हुई। उन्होंने कहा था “जो जनजाति अपने बच्चों को शिक्षित करती है, वही अपनी संस्कृति को बचा सकती है।”
 
 
धर्मांतरण विरोध और सांस्कृतिक चेतना
 
बाबा उरांव ने जनजातीय समाज में धर्मांतरण की बढ़ती प्रवृत्ति को सबसे बड़ा सांस्कृतिक खतरा बताया। उन्होंने इसे “जनजातीय समाज के मूल तत्वोंः प्रकृति, पूर्वज और परंपरा पर आघात” माना।
उन्होंने अपने लेखों और भाषणों में कहा कि “हमारा धर्म प्रकृति है, हमारे देवता हमारे पूर्वज हैं। इन्हें त्यागना अपने अस्तित्व को मिटाना है।”
इस प्रकार वे केवल सामाजिक नेता नहीं, बल्कि जनजातीय संस्कृति के संत-पुरुष और संरक्षक के रूप में देखे जाते हैं।
 
 
जन्मशताब्दी वर्ष : स्मरण और प्रेरणा
 
वर्ष 2024–25 को बाबा डॉ. कार्तिक उरांव की जन्मशताब्दी वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है। यह अवसर न केवल उनके योगदान को याद करने का है, बल्कि उनके विचारों को जनजातीय नीति और राष्ट्रीय विमर्श में पुनर्स्थापित करने का भी है।
उनके विचारों के आलोक में देश को यह पुनः सुनिश्चित करना होगा कि आरक्षण केवल मूल जनजातीयों को मिले, धर्मांतरित व्यक्तियों को नहीं। जनजातीय शिक्षा और रोजगार में आत्मनिर्भरता की नीति बने। जल, जंगल और जमीन पर जनजातीय स्वामित्व का संरक्षण हो।
 
 
जनजातीय स्वराज के अमर पथप्रदर्शक
 
डॉ. कार्तिक उरांव का जीवन भारतीय जनजातीय चेतना का प्रकाशस्तंभ है। उन्होंने अपनी शिक्षा, संघर्ष और नीति-दृष्टि से यह दिखाया कि जनजातीय समाज आधुनिक भारत का अंग होते हुए भी अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ा रह सकता है।
उनकी वाणी आज भी मार्गदर्शक है। “हम आधुनिक बनें, पर अपनी मिट्टी से कटे नहीं। हम शिक्षित हों, पर अपनी जड़ों को न भूलें।”
उनका जीवन संदेश है “धर्मांतरण नहीं, आत्मपरिवर्तन ही जनजातीय उत्थान का मार्ग है।”
बाबा डॉ. कार्तिक उरांव आज भी हर जनजातीय हृदय में संघर्ष, स्वाभिमान और संस्कृति के प्रतीक के रूप में जीवित हैं।