डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
विभीषण रावण को श्रीराम की अजेयता बताकर सीताजी को लौटा देने के लिए अनुरोध करते हुए कहता है कि आप मेरे बड़े भाई हैं, अत: मैं आपको विनयपूर्वक प्रसन्न करना चाहता हूँ। आप मेरी बात मान लें। मैं आपके हित के लिए सत्य कहता हूँ कि आप श्रीरामचन्द्रजी को उनकी सीता वापस कर दें। भैया! आप क्रोध को त्याग दें क्योंकि वह सुख और धर्म का नाश करने वाला होता है। धर्म का मार्ग स्वीकार कीजिए क्योंकि वही सच्चा सुख और सुयश में वृद्धि करने वाला होता है। हम पर प्रसन्न होइए, जिससे हम पुत्र और बन्धु-बान्धवों सहित जीवित रह सकें। इसी दृष्टि से मेरी प्रार्थना है कि आप श्रीराम के हाथ में सीताजी को लौटा दें। विभीषण की यह बात सुनकर रावण उन सब सभासदों को विदा करके महल में चला गया।
दूसरे दिन प्रात:काल होते ही विभीषण रावण के घर गए। वहाँ पहुँचकर विभीषण ने अपने भाई की विजय के उद्देश्य से वेदवेत्ता ब्राह्मणों द्वारा किए गए पुण्याहवाचन पवित्र घोष सुने। तदनन्तर विभीषण ने वेदमन्त्रों के ज्ञाता ब्राह्मणों का दर्शन किया, जिनके हाथों में दही और घी के पात्र थे। फूलों और अक्षतों से उन सबकी पूजा की गई थी। वहाँ जाने पर राक्षसों ने उनका स्वागत-सत्कार किया। फिर विभीषण ने अपने तेज से देदीप्यमान और सिंहासन पर विराजमान रावण को प्रणाम किया। तदनन्तर शिष्टाचार के ज्ञाता विभीषण ने “विजयतां महाराज” (महाराज की जय हो) इत्यादि रूप से राजा के प्रति परम्परागत शुभाशंसा-सूचक वचन कहे और राजा के संकेत पर सुवर्णभूषित सिंहासन पर बैठ गए।
विभीषण को जगत की भली-बुरी बातों का अच्छा अनुभव था। उन्होंने प्रणाम आदि व्यवहार का यथार्थ निर्वाह करके सात्वना-पूर्ण वचनों द्वारा रावण को प्रसन्न किया और एकान्त में मंत्रियों के निकट देश, काल और प्रयोजन के अनुरूप युक्तियों द्वारा निश्चित तथा अत्यन्त हितकारक बात कही –
“यदाप्रभूति वैदेही सम्प्राप्तेह परंतप।
तदाप्रभूति दृश्यन्ते निमित्तान्यशुभानि न:।।
- वाल्मीकि रामायण, युद्धकाण्ड, सर्ग 10-14”
हे शत्रुओं को संताप देने वाले महाराज! जबसे विदेहकुमारी सीताजी यहाँ आई हैं, तभी से हम लोगों को अनेक प्रकार के अमंगलसूचक अपशकुन दिखाई दे रहे हैं।
मन्त्रों द्वारा विधिपूर्वक धधकाने पर भी अग्नि अच्छी तरह प्रज्वलित नहीं हो रही है। उससे चिनगारियाँ निकलने लगती हैं। उसकी लपट के साथ धुआँ उठने लगा है और मन्थनकाल में जब अग्नि प्रकट होती है, उस समय भी वह धुएँ से मलिन रहती है। रसोईघरों, अग्रिशालाओं तथा वेदाध्ययन के स्थानों में साँप देखे जाते हैं और हवन-सामग्रियों में चीटियाँ पड़ी हुई दिखाई देती हैं। गायों का दूध सूख गया है, बड़े-बड़े गजराज मदरहित हो गए हैं, घोड़े नए ग्रास से सन्तुष्ट होने पर भी दीनतापूर्ण स्वर में हिनहिनाते हैं। राजन्! गधों, ऊँटों और खच्चरों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उनके नेत्रों से आँसू गिरने लगते हैं। विधिपूर्वक चिकित्सा की जाने पर भी वे पूर्णत: स्वस्थ नहीं हो पाते। क्रूर कौए झुंड के झुंड एकत्र होकर कर्कश स्वर में काँव–काँव करने लगते हैं तथा वे सतमहले मकानों पर समूह के समूह इकट्ठे दिखाई देते हैं।
“गृधाश्च परिलीयन्ते पुरीमुपरि पिण्डिता:।
शिवा: उपपन्नश्च संध्ये द्वे व्याहरन्त्यशिवं शिवा।।
- वाल्मीकि रामायण, युद्धकाण्ड, सर्ग 10-20”
लंकापुरी के ऊपर झुंड के झुंड गीध उसका स्पर्श करते हुए मँडराते रहते हैं। दोनों संध्याओं के समय सियार नगर के समीप आकर अमंगलसूचक शब्द करते हैं।
नगर के सभी फाटकों पर समूह के समूह एकत्र हुए मांसभक्षी पशुओं के जोर-जोर से किए जाने वाले चीत्कार बिजली की गड़गड़ाहट के समान सुनाई पड़ते हैं। हे वीरवीर! ऐसी परिस्थिति में मुझे तो यही प्रायश्चित अच्छा जान पड़ता है कि विदेहकुमारी सीताजी श्रीरामजी को लौटा दी जाएँ। महाराज! यदि यह बात मैंने मोह या लोभ से कही हो तो भी आपको मुझमें दोषदृष्टि नहीं करनी चाहिए। सीता का अपहरण तथा उससे होने वाला अपशकुन रूपी दोष यहाँ की सारी प्रजा, राक्षस-राक्षसी तथा नगर और अन्त:पुर सभी के लिए उपलक्षित होता है।
यह बात आपके कानों तक पहुँचाने में प्राय: सभी मन्त्री संकोच करते हैं, किन्तु जो बात मैंने देखी या सुनी है वह मुझे तो आपके आगे अवश्य निवेदन करनी चाहिए। अत: उस पर यथोचित विचार करके आप जैसा उचित समझें वैसा करें।
विभीषण की ये हितकारी, महान अर्थ-साधक, कोमल, युक्तिसंगत तथा तीनों कालों भूत, भविष्य और वर्तमान में कार्यसाधन में समर्थ बातें सुनकर रावण को ज्वर चढ़ गया। वह श्रीराम के साथ वैर बढ़ाने में और अधिक आसक्त हो गया। अत: उसने इस प्रकार उत्तर दिया –
विभीषण! मैं तो कहीं से भी किसी प्रकार का भय नहीं देखता हूँ। राम मिथिलेशकुमारी सीता को कभी नहीं पा सकते। इन्द्र सहित देवताओं की सहायता प्राप्त कर लेने पर भी लक्ष्मण के बड़े भाई राम मेरे सामने संग्राम में कैसे टिक सकेंगे?
इतना कहकर रावण ने अपने यथार्थवादी भाई विभीषण को तत्काल विदा कर दिया।
रावण के अहंकार का परिणाम सभी जानते हैं कि अन्त में क्या हुआ।