भोपाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पहली शाखा

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    01-Oct-2025
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रमेश शर्मा

 

विश्व का सबसे विशाल सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी यात्रा के सौ वर्ष पूर्ण करने जा रहा है। यह यात्रा बहुत संघर्षों से भरी है, लेकिन संघ ने विषमताओं पर विजय पाकर न केवल शताब्दी यात्रा पूरी की, बल्कि विस्तार भी किया। यह कहानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भोपाल में आकार लेने और विस्तार करने की है।

 

स्वतंत्रता से पहले मध्यप्रदेश राज्य ने वर्तमान भौगोलिक आकार ग्रहण नहीं किया था। कुछ क्षेत्र छोटी-बड़ी रियासतों में विभाजित थे और कुछ क्षेत्र अंग्रेजों के सीधे अधीन थे। यदि हम मध्यप्रदेश के वर्तमान स्वरूप के अनुसार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की यात्रा को समझें तो सबसे पहले संघ का अंकुरण मालवा क्षेत्र में हुआ और फिर अन्य क्षेत्रों में विस्तार हुआ। भोपाल क्षेत्र उन दिनों "नवाबी रियासत" के रूप में जाना जाता था। यह रियासत वर्तमान भोपाल, रायसेन और सीहोर जिलों के क्षेत्रफल में फैली हुई थी।

 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भोपाल का संपर्क 1934 में हो गया था। मालवा क्षेत्र से संघ के अधिकारियों की भी भोपाल यात्राएँ आरंभ हुईं। लेकिन संघ की विधिवत शाखा बसंत पंचमी 1940 को आरंभ हो सकी। यह शाखा मंदिर कमाली प्रांगण में प्रारंभ हुई थी। इस शाखा के संचालन का दायित्व महादेव प्रसाद आचार्य को सौंपा गया, जबकि भोपाल राज्य में संघ के विस्तार का दायित्व भाई उद्धवदास मेहता ने संभाला।

 

भोपाल क्षेत्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा आरंभ करना सरल नहीं था। इसके दो कारण थे। पहला, भारत के सार्वजनिक वातावरण में एक ऐसी अंतः प्रभावित मानसिक धारा रही है जो भारत राष्ट्र के सांस्कृतिक स्वरूप का विषय आते ही भड़क उठती है और उसे दबाने के लिए पूरी शक्ति लगा देती है। यह भोपाल में भी थी। दूसरा कारण था भोपाल का "नवाबी रियासत" होना। भोपाल नवाब परिवार की शब्दशैली चाहे जैसी रही हो, उनकी कार्यशैली आंतरिक कट्टरपन से भरी थी। इसमें सनातन हिन्दुओं को अपनी सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं का आयोजन सार्वजनिक रूप से करने पर प्रतिबंध था।

 

भोपाल रियासत के दो शक्ति केंद्र थे। अपनी सुरक्षा सेना के साथ नवाब परिवार भोपाल नगर में रहता था। यह नगर नवाब प्रशासन का मुख्य केन्द्र था। जबकि अंग्रेज पोलिटिकल एजेंट सीहोर नगर में रहता था और सैन्य छावनी भी सीहोर में थी। उन दिनों भोपाल रियासत क्षेत्र में "हिन्दू सेवा संघ" नामक एक सामाजिक संगठन सनातन हिन्दुओं के नागरिक अधिकार और सम्मान के लिए संघर्ष कर रहा था। अपनी अन्य सामाजिक गतिविधियों के साथ यह संगठन मंदिर कमाली परिसर में एक अखाड़ा भी संचालित करता था।

 

1934 में इस संगठन का एक प्रतिनिधिमंडल नासिक, महाराष्ट्र की यात्रा पर गया। वहाँ हिन्दू महासभा का राष्ट्रीय अधिवेशन होने वाला था। भोपाल हिन्दू सेवा संघ भोपाल में हिन्दू महासभा की विधिवत इकाई गठित करना चाहता था। जंगल सत्याग्रह के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इसके संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार चर्चा में आ गए थे। यह प्रतिनिधिमंडल लौटते समय नागपुर रुका और डॉक्टरजी से भेंट कर संघ को भी समझना चाहता था।

 

जो समूह नासिक गया था, उसमें भाई उद्धवदास मेहता, मास्टर भैरों प्रसाद सक्सेना, ठाकुर लालसिंह सहित कुल छह लोग थे। यह समूह जब नासिक पहुँचा तो वहाँ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का वर्ग चल रहा था और संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार भी वहीं थे। हिन्दू महासभा के अधिवेशन से निवृत्त होकर भोपाल हिन्दू सेवा संघ का यह समूह डॉक्टरजी से मिला। संघ की गतिविधि और शाखा का संचालन समझा। अपनी यात्रा के दोनों उद्देश्य पूरे कर यह दल भोपाल लौट आया।

 

भोपाल आकर भाई उद्धवदास मेहता ने कमाली मंदिर में संचालित अखाड़े में कुछ परिवर्तन किए और उसे व्यायामशाला का स्वरूप दिया। व्यायामशाला में कुश्ती अभ्यास तो यथावत रहा, लेकिन प्रातःकालीन गतिविधि का स्वरूप बिल्कुल शाखा की भाँति किया। इसके संचालन का कार्य महादेव प्रसाद आचार्य को सौंपा गया। प्रतिदिन प्रातःकालीन व्यायाम के बाद सामाजिक, सांस्कृतिक एवं सामयिक विषयों पर चर्चाएँ होने लगीं। इसी शैली पर आधारित एक व्यायामशाला सीहोर में भी आरंभ की गई, जिसका संचालन रामचरणदास ने किया। वे आर्यसमाज से जुड़े थे।

 

सीहोर की व्यायामशाला की गतिविधि अंग्रेज पोलिटिकल एजेंट से छिपी न रह सकी। उसने इस व्यायामशाला को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधि माना और नवाब भोपाल को पत्र लिखकर कार्रवाई करने को कहा। नवाब प्रशासन ने दोनों व्यायामशालाओं पर छापे मारे और उन्हें प्रतिबंधित कर दिया। भाई उद्धवदास मेहता ने दो-तीन बार इन्हें पुनः आरंभ करने का प्रयास किया। मंदिर कमाली में बंद कमरे में भी व्यायाम अभ्यास करने का प्रयास हुआ। सफलता और असफलता के इस दौर में नवाब प्रशासन से बातचीत भी चलती रही। कई दौर की बातचीत के बाद अंत में समझौता हुआ।

 
नवाब प्रशासन से हिन्दू समाज को सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक उत्सव सार्वजनिक रूप से मनाने की अनुमति मिल गई। इसके साथ ही 1938 से ये दोनों व्यायामशालाएँ नए उत्साह के साथ पुनः प्रारंभ हो गईं। भोपाल के मंदिर कमाली में संचालित यही व्यायामशाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विधिवत शाखा बनी। यह बसंत पंचमी 1940 का दिन था। व्यायामशाला में संघ की शाखा आरंभ करने के लिए बसंतोत्सव का आयोजन हुआ। इसमें नगर के सभी गणमान्य आमंत्रित थे।

 

इस आयोजन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक दिगंबरराव तिजारे भोपाल आए। उनका केंद्र उज्जैन था। इससे पहले वे भोपाल, सीहोर एवं बरेली आदि स्थानों की यात्रा कर चुके थे। उस समय की पीढ़ी का मानना था कि भोपाल से पहले 1939 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विधिवत शाखा सीहोर में आरंभ हो गई थी। पचास के दशक में प्रचारक बनने वालों की संख्या भी भोपाल नगर की तुलना में सीहोर से अधिक रही।

 

1940 की यात्रा में तिजारेजी दो दिन पहले ही भोपाल आ गए थे। उनके निर्देशन में ही बसंतोत्सव का आयोजन हुआ, जिसमें संघ के गीत गाए गए और नगर के कुछ प्रबुद्ध जनों का संबोधन हुआ। मुख्य संबोधन तिजारेजी का था। इस प्रथम शाखा के संचालन का दायित्व महादेव प्रसाद आचार्य को सौंपा गया। वे ही शाखा से पहले संचालित व्यायामशाला के संचालक थे। तिजारेजी ने भोपाल राज्य संघ चालक का दायित्व भाई उद्धवदास मेहता को सौंपा।

 

इस पहली शाखा में जिन नवयुवकों ने स्वयंसेवक के रूप में सहभागिता की उनमें शंकरलाल शर्मा, नूतन दुबे, नारायण प्रसाद गुप्ता जैसे नाम थे। इनमें नारायण प्रसाद गुप्ता और शंकरलाल शर्मा आगे चलकर प्रचारक बने। शंकरलाल शर्मा, शाखा संचालक महादेव प्रसाद आचार्य के पुत्र थे। इसी कालखंड में बरेली, उदयपुरा और बैरसिया में भी संघ की शाखाएँ आरंभ हुईं। इसके साथ ही भोपाल राज्य में संघ का तेजी से विस्तार हुआ। 1946 तक भोपाल राज्य क्षेत्र के अंतर्गत बीस स्थानों में संघ की शाखाएँ सक्रिय हो गईं।

 

भोपाल राज्य क्षेत्र में संघ कार्य का विस्तार 1942 में बाधित हुआ। इस वर्ष पूरे देश में "अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन" आरंभ हुआ था। भोपाल राज्य के अंतर्गत सीहोर नगर में यह आंदोलन हुआ। इसका कारण अंग्रेज पोलिटिकल एजेंट का मुख्यालय सीहोर में होना था। इस आंदोलन में संघ कार्यकर्ताओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। कई गिरफ्तारियाँ हुईं। इनसे सीहोर और भोपाल में शाखाओं के संचालन में गतिरोध आया। कुछ माह शाखाएँ बाधित रहीं, लेकिन 1943 के आरंभ से पुनः नियमित हो गईं।

 

भोपाल राज्य क्षेत्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधि पर दूसरा आघात फरवरी 1948 में आया। इसकी पृष्ठभूमि गाँधीजी की हत्या थी। उनकी हत्या दिल्ली में हुई, लेकिन किसी अदृश्य षड्यंत्र के अंतर्गत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर देशव्यापी प्रतिबंध लगा दिया गया। भोपाल में नबाब प्रशासन मानो इसकी प्रतीक्षा कर रहा था।

 

इसका कारण विलीनीकरण आंदोलन था। 15 अगस्त 1947 को भले ही अंग्रेजी सत्ता चली गई थी, लेकिन भोपाल नवाब हमीदुल्लाह खान ने पहले पाकिस्तान से मिलने की घोषणा की और फिर स्वतंत्र रहने का प्रयास किया। तब भोपाल में विलीनीकरण आंदोलन आरंभ हुआ, जिसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता सक्रिय रहे।

 

फरवरी 1948 में दिल्ली से संघ पर प्रतिबंध की घोषणा होते ही नबाब प्रशासन और पुलिस हिन्दू महासभा व संघ से जुड़े कार्यकर्ताओं के घरों पर टूट पड़ी। महिलाओं तक को प्रताड़ित किया गया। घरों में तोड़फोड़ हुई, सामान जला दिए गए। कुछ परिवारों में बच्चों की किताबें तक जला दी गईं। जेलों में जगह न बची तो लोगों को मीलों दूर जंगल में छोड़ दिया गया। कुछ कार्यकर्ता लौट नहीं पाए और "गुमनाम" घोषित कर दिए गए।

 

भोपाल में पंद्रह दिनों तक दमन का यह वातावरण रहा। इसके बाद भी भय और आतंक चार माह तक यथावत रहा। मई 1948 से गिरफ्तार कार्यकर्ताओं की रिहाई आरंभ हुई, तब जाकर राहत मिली।

 

दमन का यह दौर संघ के किसी स्वयंसेवक का मनोबल नहीं तोड़ सका। जून 1948 तक अधिकांश स्वयंसेवक रिहा हो गए। इसके साथ ही भोपाल राज्य को भारतीय संघ में विलीनीकरण आंदोलन पुनः तेज हुआ। संघ के स्वयंसेवकों ने यह परवाह नहीं की कि आंदोलन का नेतृत्व कौन कर रहा है और श्रेय किसे मिल रहा है, वे बस आंदोलन की सफलता में जुट गए। अंततः 1 जून 1949 को नबाबी सत्ता से मुक्ति मिली।

 

भोपाल में संघ कार्य की एक विशेषता यह भी रही कि यहाँ आर्यसमाज, हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता आपस में गहराई से जुड़े थे। यही कारण था कि फरवरी 1948 में संघ और हिन्दू महासभा के कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारियों से विलीनीकरण आंदोलन प्रभावित हुआ था।

 

आंदोलन की पूर्णता के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता पुनः समाज और सांस्कृतिक जागरण में जुट गए। भोपाल रियासत के भारतीय संघ का अंग बनने के बाद संघ ने कभी श्रेय लेने की कोशिश नहीं की। यही संघ की कार्यशैली है व्यक्ति पीछे रहता है और काम आगे। संघ कार्यकर्ता और प्रचारक काम तो करते हैं लेकिन अपने द्वारा किए कार्य का उल्लेख नहीं करते।

 

भोपाल राज्य में संघ की स्थापना और आरंभिक कार्यों का दस्तावेजीकरण कभी नहीं हुआ। यदि किसी ने व्यक्तिगत स्तर पर कुछ लिखा भी था तो गाँधीजी की हत्या के बाद कार्यकर्ताओं के घरों पर पड़े छापों और जब्ती में नष्ट हो गया। बाद के वर्षों में जो कुछ भी संकलित हुआ वह संघ से जुड़े लोगों की स्मृतियों के आधार पर ही एकत्र हो सका। इस आलेख का आधार भी वरिष्ठों के वे संस्मरण हैं जो समय-समय पर सुनने को मिले।