- डॉ. मयंक चतुर्वेदी
जमीयत उलेमा-ए-हिंद की गवर्निंग काउंसिल ने मुस्लिम छात्रों से स्कूलों में 'शिर्क' (बहुदेववाद) माने जाने वाले व्यवहार, आचरण का विरोध और गैर-इस्लामिक गतिविधियों में किसी भी मुसलमान को भाग नहीं लेने के लिए कहा है। जमीयत के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी ने छात्रों और उनके परिवारों को निर्देश दिया है कि अगर उन पर किसी भी प्रकार की प्रार्थना और सूर्य नमस्कार जैसी गतिविधियों में भाग लेने के लिए कहा जाता है तो वे ऐसा न करें और ऐसा करने के लिए यदि मजबूर किया जाता है तो उसका खुलकर विरोध करते हुए आगे कानूनी कार्रवाई भी करें।
ये इस्लामी संगठन राज्य सरकारों द्वारा शिक्षा प्रणाली में सूर्य नमस्कार, सरस्वती पूजा, हिंदू गीत, श्लोक या तिलक लगाने का विरोध करता है और कहता है, इस्लाम का मूल विश्वास तौहीद (एकेश्वरवाद) है और मुसलमान अल्लाह के अलावा किसी और की पूजा स्वीकार नहीं कर सकते। मूर्ति पूजा, तस्वीर या किसी भी तरह की प्रार्थना (नमाज को छोड़कर) उसका कोई विश्वास अन्य पर नहीं और न ही होना चाहिए ।
अब जमीयत उलेमा-ए-हिंद संगठन ने आज जो कहा है, उससे एक तो यह साफ हो गया कि भारत की प्राचीन परंपरा, संस्कृति, जोकि सनातन हिन्दू सभ्यता जिसमें प्रकृति पूजन भी है, बहुदेव पूजा विधान और एकेश्वर ब्रह्म की दृष्टि भी है से वह मुसलमानों को पूरी तरह से विलग करना चाहती है। दूसरा यह कि भारत के मुसलमानों को एक पहचान की खास फ्रेम में बांध देना ही इसका उद्देश्य है, जहां से बाहर निकलने की उसके लिए कोई गुंजाइश न रहे। कुल मिलाकर देश की दूसरी सबसे बड़े जनसंख्या वर्ग मुसलमान को असहिष्णु हो जाने के मार्ग पर जमीयत ले चला है । किंतु हम किसी निष्कर्ष पर पहुंचे, उससे पहले कुछ जिज्ञासाएं हैं; उनके उत्तर हर मुसलमान जरूर सोचे।
वास्तव में जो जमीयत उलेमा-ए-हिंद तौहीद (एकेश्वरवाद) की बात करते हुए कह रहा है कि मुसलमान अल्लाह के अलावा किसी और की पूजा स्वीकार नहीं कर सकते, मूर्ति-चित्र पूजा का वह विरोध करता है, तब उसे यह विचार अवश्य करना चाहिए कि मुस्लिम घरों में जो मक्का-मदीना, का चित्र लगा होता है, लोग अरबी आयतें लिखकर उसके चित्र बनाकर घरों में लगाते हैं। एक पवित्र अंक संख्या मानकर उसके चित्र बनाकर घरों में टांगते हैं, तब उस स्थिति में वह चित्र के माध्यम से किसके सामने सिर झुकाते हैं? क्या चित्र एक स्वरूप नहीं?
अल्लाह, आखों से दिखाई नहीं देता, उसे अनुभूत किया जा सकता है, वह भी प्रार्थना के स्तर पर उसके प्रति कृतज्ञ हुआ जा सकता है, ऐसे में उसी को ध्यान में रखकर पश्चिम की ओर मुंह करके क्यों प्रत्येक मुसलमान नमाज अदा करता है? क्या यह इसलिए है, क्योंकि वहां पवित्र काबा है। अब जिस इमारत को पवित्र मानकर मुसलमान प्रार्थना करता है, वह इमारत क्या एक स्वरूप नहीं है? यदि है तो फिर बहुदेव पूजा के प्रति आस्था रखनेवालों से यह किस तरह से भिन्न है?
अंतत: काबा या ख़ाने काबा (अरबी उच्चारण: का'आ़बा) मक्का, सउदी अरब में स्थित एक घनाकार (क्यूब के आकार की) इमारत ही तो है, जिसे इस्लाम का सबसे पवित्र स्थल माना गया है। इस्लामी परंपरा के अनुसार इस भवन को सबसे पहले स्वयं इब्राहिम ने बनाया था। यह इमारत, मक्का के मस्जिद-अल-हरम के बीचो-बीच स्थित है। क़ुरान और इस्लामी शरिया के अनुसार दुनिया के सारे मुसलामानों पर यह लागु है, वे नमाज़ के समय काबा की और मुँह कर के नमाज़ अदा करें। हज तीर्थयात्रा के दौरान भी मुस्लिमों को तवाफ़ नामक महत्वपूर्ण धार्मिक रीत पूरी करने का निर्देश है, जिसमें काबे की सात परिक्रमाएँ की जाती हैं।
वास्तव में सच यही है कि जिस तौहीद की बात जमीयत करता है, उसे या अन्य किसी भी प्रकार के लिए भी अपने को अभिव्यक्ति देने हेतु किसी न किसी स्वरूप की आवश्यकता है और यह जरूरत अपने भाव एवं शब्दों से उस प्रकृति, जिसके कारण से हमारा अस्तित्व है एवं उन सभी के लिए नमन करने की है, जिसके कारण से हमारे होने का अस्तित्व है । हिन्दू या अन्य पंथ, धर्म के लोग प्रार्थना के लिए अपने स्वभाव के अनुरूप देव आराधना को स्वीकारते हैं। जैसे हर विषय के अलग-अलग विशेषज्ञ हैं, वैसे ही हिन्दू दृष्टि और बहुदेव आराधना में हर देवता की अपनी विशेषज्ञता है, जब दो जुड़वा भाई-बहन एक स्वभाव एवं रुचि के नहीं हो सकते, तब उनके आदर्श प्रतिमान, आराधना देव एक कैसे हो सकते हैं, इसलिए हिन्दू दृष्टि में देवताओं के विविध स्वरूप हैं और जिस किसी को भी अपने चरित्र में जिस भी प्रकार के विशेष गुण में विशेषता प्राप्त करनी है, वह उस देवता के चरित्र से स्वभाविक तौर पर आकर्षित होता है और देवता के रूप में उसकी आराधना करते हुए स्वयं को सतत उस दिशा में श्रेष्ठता की ओर ले जाता है।
हकीकत यही है कि प्रार्थना का स्वरूप कोई भी क्यों न हो, वह आखिर बाहर से अंदर की यात्रा है। प्रार्थना करना कुछ शब्दों को दोहराना नहीं है। प्रार्थना का अर्थ ही है, परमात्मा का मनन और उसकी अनुभूति, परम की कामना । प्रार्थना राग-द्वेष से मुक्त है। प्रार्थना यानी पवित्रता के साथ किया गया अर्चन। प्रार्थना ह्दय की उच्चावस्था है, इसलिए प्रार्थना का उत्स हृदय को बताया गया है। ऐसे में जिस ईश्वर की भी हम पूजा करते हैं वह सिर्फ सिद्धांत, दर्शन या विचारधारा नहीं है, न ही वह कोई खोखला चरित्र या व्यर्थ मूर्ति है, उसके मायने इससे कहीं अधिक हैं। वह हवा, पानी और ध्वनि की तरह वास्तविक है। जिस तरह हवा, पानी और ध्वनि ब्रह्मांड में हैं, उसी तरह ईश्वर, जो आत्मा है, अनेक स्वरूपों में हमारे चारों ओर विद्यमान है। उसी ईश्वर को विविध प्रार्थना रूपों में हम याद करते हैं और उसके प्रति अपनी श्रद्धा अर्पित करते हैं। फिर इससे क्या फर्क पड़ता है कि वह प्रार्थना एकेश्वरवादी हो या विविध देवताओं के लिए जोकि गुणधर्मी हैं।
क़ुरान का पहला अध्याय सूरा फ़ातिहा यह प्रकट कर्ता है, "अल-हम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन, अर-रह्मा निर्रहीम"। अर्थात सारी प्रशंसा उस अल्लाह (ईश्वर) के लिये हैं, जो सारे जगत का रब (पालने वाला) है, और वह अमित दयावान और कृपाशील है। यही बात तो भागवत, सनातन हिन्दू धर्म में भगवान श्रीकृष्ण के माध्यम से भगवद्गीता में समझायी गई है-
ये यथा माम् प्रपद्यन्ते तंस्तथैव भजाम्यहम्,
मम वर्त्मनुवर्तन्ते मनुष्य: पार्थ सर्वश:।
जैसे-जैसे मनुष्य मेरे पास आते हैं, वैसे-वैसे मैं उन्हें अपने प्रेम (भजामि) में स्वीकार करता हूं। हे पार्थ! मनुष्य हर प्रकार से मेरे मार्ग का अनुसरण करते हैं।
विश्व के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में ऐसे अनेक मंत्र हैं, जोकि प्रत्येक मनुष्य की उच्चावस्था तक पहुंचने के लिए मार्ग प्रशस्त करते हैं। जैसे कि ये -
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति । दूरंगं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
हे परमात्मा ! जागृत अवस्था में जो मन दूर दूर तक चला जाता है और सुप्तावस्था में भी दूर दूर तक चला जाता है, वही मन इन्द्रियों का प्रकाशक है, ऐसा हमारा मन शुभ-कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो !
"आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरितासउद्भिदः। देवा नो यथा सदमिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे दिवे॥
कल्याणकारक, न दबनेवाले, पराभूत न होने वाले, उच्चता को पहुँचानेवाले शुभ विचार,शुभ संकल्प,शुभ निश्चय चारों ओर से हमारे पास आयें। प्रगति को न रोकने वाले, प्रतिदिन सुरक्षा करने वाले देव हमारा सदा संवर्धन करने वाले हों।
वस्तुत: इस तरह के कल्याणकारक विचार भारतीय ज्ञान परंपरा में सर्वत्र मौजूद हैं। या कहें यही भाव अन्य मत-पंथों में ईश्वर के लिए अलग-अलग तरह से प्रकट हुए हैं। ऐसे में प्रश्न यही है कि आखिर फिर क्यों जमीयत उलेमा-ए-हिंद इस्लाम के नाम पर विभेद पैदा करने का काम कर रही है?