अभिषेक तिवारी
तीसरा दिन - 23 दिसंबर सन 1704
माता गुजरी जी और छोटे साहिबज़ादे कैद में -
साहिबज़ादे बाबा अजीतसिंघ जी, बाबा जुझारसिंघ जी और अन्य सिखों के बलिदान के बाद जब केवल दस सिख बचे थे तो सबने कहा, आप निकलिए गुरुजी! पंथ के लिए आपका निकलना आवश्यक है। शहीदों के बीच निकलते भाई दया सिंह जी ने कहा, गुरुजी रुकिये! साहिबज़ादों की दिव्य देह को अपनी चादर से ढक दूँ।
गुरुजी ने कहा, तुम्हारे पास छत्तीस चादरें हैं? अगर मेरे छत्तीस सिखों के शव पर चादर डाल सकते हो तो डाल दो, नहीं तो साहबजादे अजीतसिंघ और साहिबजादे जुझारसिंघ की देह भी अन्य सिक्खों की तरह खाली ही रहेंगी। इस मिट्टी को याद रहना चाहिए कि उसके लिए उसके बच्चों ने कैसा बलिदान दिया है। सरसा नदी के किनारे बिछड़े परिवार में से श्री गुरुजी के छोटे सुपुत्र साहिबज़ादा जोरावरसिंघ जी और साहिबज़ादा फतेहसिंघ जी अपनी दादी मातागुजरी जी के साथ चले गए।
छोटे साहिबज़ादे जंगल पार करते हुये माता गुजरी जी के साथ गुरबाणी का पाठ करते हुए आगे बढ़ते रहे। एक धोखेबाज़ गंगू नामक खोटे सिक्के की मुखबिरी के कारण मुरिण्डे के मुग़ल कोतवाल ने माताजी के साथ दोनों साहिबज़ादों को गिरफ्तार कर कैद में ले लिया। कड़कती ठंड में हवालात में कैद माताजी ने साहिबज़ादों को गुरुनानक देवजी, गुरु तेगबहादुर जी की बहादुरी के बारे में बताया और गुरुग्रंथ साहिब जी का पाठ करके वह सो गए।
चौथा दिन -24 दिसंबर सन 1704
ठंडे बुर्ज़ की कैद -
कैद में माताजी ने छोटे साहिबज़ादों को गुरु नानक देव जी और गुरु तेग बहादुर जी की बहादुरी के बारे में बताया और रहिरास साहब का पाठ करके वह सो गए। अगली सुबह उन्हें जनी खान-मनी खान द्वारा बैलगाड़ी में बैठाकर सरहंद के बस्सी थाने ले जाया गया। लोगों की भीड़ भी साथ चल रही थी। माता जी और छोटे साहिबजादों को निडर देख लोग कह रहे थे 'ये वीर पिता के वीर सपूत हैं'।
सरहंद पहुंचकर पूस की कड़कड़ाती रात को माता गुजरी जी और दोनों साहिबजादों को शाही किले के ठंडे बुर्ज में कैद कर दिया गया। चारों ओर से खुले तथा ऊंचाई वाली इस जगह पर बने ठंडे बुर्ज से ही माता गुजरी जी ने छोटे साहिबजादों बाबा जोरावरसिंघ जी व बाबा फतेहसिंघ जी को धर्म की रक्षा के लिए शीश ना झुकाते हुए बलिदान देने का महान पाठ पढ़ाया जिसके अनुसार दोनों छोटे साहिबजादे लगातार तीन दिनों तक नवाब की कचहरी में अनेकों धमकी व प्रलोभन के बाद भी खुशी खुशी स्वधर्म पर डटे रहे।
ठंडा बुर्ज किले का वह खुला स्थान होता है जहाँ सर्दियों की ठंडी रातों में हाड़ कंपा देने वाली ठंडी हवाएं बेहद पीड़ादायक होती है जो किसी भी व्यक्ति को कमजोर बना सकती हैं, लेकिन छोटे साहिबज़ादे 9 साल के बाबा जोरावरसिंघ जी और 7 साल के बाबा फतेहसिंघ जी अपने इरादों पर अडिग रहे। कड़कड़ाती पूस की जानलेवा ठण्ड भी पिता दशमेश के वीर पुत्र छोटे साहिबज़ादों के हौसले कमज़ोर नहीं कर पाई।
पांचवा दिन - 25 दिसंबर 1704 -
छोटे साहिबज़ादों की स्वधर्म निष्ठा और बाबा मोती मेहरा जी का बलिदान -
रात भर ठंड में ठिठुरने के बाद सुबह होते ही दोनों साहिबज़ादों को वजीर खां के सामने पेश किया गया, जहां भरी सभा में उन्हें इस्लाम धर्म कबूल करने को कहा गया। कहते हैं सभा में पहुंचते ही बिना किसी हिचकिचाहट के दोनों साहिबज़ादों ने ज़ोर से जयकारा लगाया "वाहेगुरुजी दा खालसा, वाहेगुरुजी दी फतेह"..
यह देख सब दंग रह गए, वजीर खां की मौजूदगी में कोई ऐसा करने की हिम्मत भी नहीं कर सकता लेकिन गुरु जी के नन्हे वीर बालकों ने ऐसा करते समय एक पल के लिए भी ना डरीं। सभा में मौजूद मुलाजिम ने साहिबज़ादों को वजीर खां के सामने सिर झुकाकर सलामी देने को कहा, लेकिन इस पर उन्होंने जो जवाब दिया वह सुनकर सबने चुप्पी साध ली।
दोनों ने सिर ऊंचा करके जवाब दिया कि ‘हम अकाल पुरख और अपने गुरु पिता के अलावा किसी के भी सामने सिर नहीं झुकाते। ऐसा करके हम अपने दादा के बलिदान को बर्बाद नहीं होने देंगे, यदि हमने किसी के सामने सिर झुकाया तो हम अपने दादा को क्या जवाब देंगे जिन्होंने धर्म के नाम पर शीश कलम करवाना सही समझा, लेकिन झुकना नहीं। वजीर खां ने दोनों साहिबजादों को काफी डराया, धमकाया और प्यार से भी इस्लाम कबूल करने के लिए राज़ी करना चाहा, लेकिन दोनों अपने निर्णय पर अटल थे। श्री गुरु महाराज के नन्हे वीर सपूतों ने स्वधर्म रक्षा के लिए मृत्यु चुनना पसंद किया।
आखिर में दोनों साहिबज़ादों को जिंदा दीवारों में चुनवाने का ऐलान किया गया। फतवा सुनाकर साहिबज़ादों को वापस ठंडा बुर्ज भेज दिया गया, जहां उन्होंने दादी माता गुजरी जी को कचहरी में हुई सारी बात सुनाई। बाबा मोती मेहरा जी ने पहरेदारों को रिश्वत देकर माताजी और साहिबज़ादों को ठंडे बुर्ज में जाकर गर्म दूध पहुंचाया, बाद में बात ज़ाहिर होने पर वज़ीर खान के सिपाहियों द्वारा बाबा मोती मेहरा को ज़िंदा कोल्हू में पीस दिया गया था।