अभिषेक तिवारी -
सिंघों की वीरता की अमर गाथा - पहला दिन
हम सभी को स्मरण रहे कि 21 से 27 दिसंबर 1704 के बीच सात दिनों में सरबंसदानी श्री गुरु गोबिंदसिंह जी ने धर्म, राष्ट्र, समाज रक्षा के लिए अपना पूरा परिवार न्योछावर कर दिया था। समय बदला, दुनिया बदली लेकिन चार साहिबज़ादों का अद्भुत साहस, अप्रतिम बलिदान और स्वधर्म निष्ठा की मिसाल आज भी कायम है और काल के अंत तक रहेगी।
21 दिसंबर 1704 को बड़े साहिबज़ादे बाबा अजितसिंघ जी, बाबा जुझारसिंघ जी और छोटे साहिबज़ादे बाबा ज़ोरावरसिंघ जी और बाबा फतेहसिंघ जी ने श्री गुरुमहाराज जी के साथ मुग़लों से युद्ध करने के लिए आनंदपुर साहिब का किला छोड़ा था..
यह अमर गाथा सात दिनों तक रोज़ यहां लिखकर अपनी लेखनी को पावन करूंगा ताकि जो भूल गये उन्हें याद रहे और जो अनजान हैं उन्हें पता चले। आगे पढ़ें एक दिव्य, अलौकिक पिता श्रीगुरूमहाराज जी का महान त्याग और बड़े साहिबज़ादों का शौर्य, साहस और बलिदान।।
दूसरा दिन
22 दिसंबर सन 1704
बड़े साहिबज़ादों का बलिदान -
आनंदपुर से निकलते समय सरसा नदी के तट पर श्री गुरु गोविंदसिंघ जी अपने कई सिखों और परिवार से बिछड़ गए। सिर्फ 40 सिख और दोनों बड़े साहिबज़ादे बाबा अजीतसिंघ जी और बाबा जुझारसिंघ जी के साथ गुरुजी चमकौर की ओर चल दिए। उनके पहुंचने की ही देर थी और रातोंरात लाखों की मुग़ल सेना ने हमला कर दिया।
गुरु जी के अलावा किले में केवल 40 सिख और थे और सामने थी बड़ी मुगल फौज। लेकिन सिख घबराए नहीं, सर्दी के उस कोहरे में उन्होंने छोटे-छोटे गुट में किले से बाहर निकलकर मुगल फौज पर हमला करने का फैसला किया। हज़ारों सैनिकों के बीच में 5-5 सिखों का जत्था निकलता और सैंकड़ों को मारकर बलिदान हो जाता।
सिखों का बलिदान देख सबसे बड़े साहिबज़ादे बाबा अजीतसिंघ जी ने भी किले से बाहर निकलकर मुगलों का सामना करने की इच्छा व्यक्त की। श्री गुरु महाराज जी ने स्वयं अपने हाथों से उन्हें तैयार किया, शस्त्र थमाए और पांच सिखों के साथ किले से बाहर रवाना किया। कहते हैं रणभूमि में जाते ही उन्होनें मुगल फौज को थर-थर कांपने पर मजबूर कर दिया। अकेले हज़ारों को मारते-काटते वे अंतिम सांस तक लड़ते रहे और फिर आखिरकार वह समय आया जब उन्होंने वीरगति को अपनाया और महज़ 17 वर्ष की उम्र में बलिदान हो गए।
बड़े भाई की शहीदी की खबर सुन साहिबज़ादे बाबा जुझारसिंघ जी ने रणभूमि में जाने की इच्छा प्रकट की। गुरु जी ने स्वयं अपनी तलवार उन्हें दी और आशीर्वाद देकर गर्व से युद्धभूमि की ओर भेजा। 15 साल के साहिबज़ादे का साहस, जोश और आत्मबल देखकर बड़े-बड़े योद्धा घबराकर भागने लगे। मुगलों की एक बड़ी टुकड़ी को ढेर कर छोटी सी उम्र में बाबा जुझारसिंघ जी बलिदान हो गये। आसमान रो रहा था लेकिन किले की छत से अपने दिल के टुकड़ों का बलिदान, शौर्य और समर्पण देख दिव्य, महान पिता दशमेश का हृदय गर्व से खिल रहा था।
वीरता और बलिदान की ऐसी दूसरी मिसाल विश्व इतिहास में कहीं नहीं मिलती। बाली उमर में स्वधर्म, स्वतंत्रता और अपने विश्वास के लिये महानतम त्याग करने वाले दोनों बड़े साहिबज़ादों को हज़ारों हज़ार प्रणाम है। जब तक दुनिया रहेगी आप साहिबज़ादों की यह पावन गाथा अमर रहेगी। इस मिट्टी और हम सब पर आपका ऋण है जो हम कभी नहीं चुका सकते...क्रमशः
धनधन बाबा अजीतसिंघ जी 🚩
धनधन बाबा जुझारसिंघ जी 🚩