4 अक्टूबर 1857 : सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और क्राँतिकारियों के मार्गदर्शक श्याम कृष्ण वर्मा का जन्म

लंदन में अखबार निकाला : अंग्रेजों के विरुद्ध निंदा प्रस्ताव लाये

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    04-Oct-2024
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-रमेश शर्मा
 
श्यामकृष्ण जी वर्मा ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे जिन्होंने न केवल देश विदेश में अंग्रेजों से मुक्ति का वातावरण बनाया अपितु क्राँतिकारियों की एक पूरी पीढ़ी का मार्ग दर्शन किया। इनमें जिसमें स्वातंत्र्यवीर विनायक सावरकर जी से लेकर मदनलाल ढींगरा तक एक लंबी सूची है । उनका निधन जिनेवा में हुआ था। ऐसे महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और "क्राँति गुरू" कहे जाने वाले श्यामकृष्ण जी वर्मा का जन्म 4 अक्टूबर 1857 को गुजरात प्राँत के कच्छ जिला अंतर्गत ग्राम मांडवी में हुआ था । उनके पिता श्रीकृष्ण वर्मा संस्कृत के विद्वान थे और माता गोमती देवी भारतीय संस्कृति एवं परंपराओं के अनुरुप जीवनशैली में रची बसी थीं। श्यामजी की आरंभिक शिक्षा अपने गाँव में ही हुई । बालपन में ही उन्हें संस्कृत का अद्भुत ज्ञान हो गया था । उन्होंने घर में भारतीय वाड्मय के संस्कृत ग्रंथों का भी अध्ययन किया । जब वे ग्यारह वर्ष के थे तब माता का निधन हो गया था ।फिर उनकी देखभाल दादी ने की । महाविद्यालयीन शिक्षा के लिये मुम्बई गये । संस्कृत ज्ञान और कुशाग्र बुद्धि के कारण पूरे महाविद्यालय में चर्चित हो गये। जिन दिनों श्यामजी कृष्ण वर्मा बम्बई में रह रहे थे तब 1875 में उनकी भेंट स्वामी दयानन्द सरस्वती से हुई । स्वामीजी मुम्बई आये थे । श्यामजी ने प्रवचन सुने । इसी वर्ष मुम्बई में आर्य समाज की स्थापना हुई।
 
 
 
 
श्यामजी आर्य समाज से जुड़ गये । और आर्यसमाज द्वारा किये जा रहे वेदों के भाष्यानुवाद से भी जुड़ गये । इसी वर्ष ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय लंदन के संस्कृत विभाग के प्रमुख मोनियर विलियम भारत आये थे । वे ऐसे संस्कृत विद्वानों से मिलना चाहते थे जो अंग्रेजी भी जानते हों। युवा श्याम जी की उनसे भेंट हुई । श्याम जी की विद्वता से प्रभावित मोनियर जी ने श्याम जी को ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय लंदन आमंत्रित किया । इसी बीच हुआ । उनकी पत्नि भानुमति एक सुप्रसिद्ध व्यापारी की बेटी थी । भानुमति के पिता ने उन्हें लंदन भेजने का प्रबंध किया । वे 1878 में इंग्लैड गये । कुछ दिन श्री मोनियर के सहायक के रूप में रहे फिर उनकी अनुशंसा पर 1879 में बी ए करने के लिये बैलियोज कॉलेज में प्रवेश ले लिया। इस महाविद्यालय से अपनी पढ़ाई के साथ निजी स्तर पर संस्कृत का अध्ययन भी निरंतर रहा । उन्होंने 1883 में बी ए किया और संस्कृत में डिग्री भी । लंदन में रहकर बी ए करने वाले पहले भारतीय थे । बी ए की डिग्री और संस्कृत ज्ञान के कारण ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में अध्यापक पद नियुक्त हो गये । ऑक्सफोर्ड में संस्कृत के साथ वे भारतीय विद्यार्थियों को गुजराती और मराठी भी पढ़ाया करते थे।
 
 
 
 
प्राध्यापक के रूप में भी उन्होंने अपनी शिक्षा जारी रखी और वकालत में प्रवेश ले लिया । बैरिस्टरी की परीक्षा पास करके भारत लौट आये । उन्होंने बम्बई में वकालत शुरु की । पर मन न लगा। वकालत छोड़कर मध्यप्रदेश के रतलाम चले आये । इसका कारण यह था कि मुंबई में छात्र जीवनसे लंदन तक और लौटकर वकालत में भी उन्होंने अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के साथ किया जाने वाला घोर अपमान देखा था । पर उनके सामने कुछ विकल्प न था। इसलिए पहले सब सहा और फिर मुम्बई छोड़कर छोटी जगह चल दिये । रतलाम आकर रियासत के दीवान हो गये । कुछ दिन रतलाम रहकर 1893 में राजस्थान के उदयपुर चले गये। वहाँ राज्य कौंसिल के सदस्य बने। उदयपुर में तीन वर्ष रहे। उसके बाद जूनागढ़ चले गये और वहाँ भी दीवान पद पर नियुक्ति मिल गई। किन्तु जूनागढ़ में तैनात अंग्रेज पोलिटिकल एजेंट से विवाद हो गया । तब उन्होंने मन ही मन कुछ संकल्प किया और दीवानी छोड़कर पुनः वकालत करने मुम्बई आ गये । श्यामजी एक संवेदनशील और स्वाभिमानी व्यक्ति थे । भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति समर्पण भी अटूट था। उन्होंने हर कदम पर भारतीयों का अपमान देखा था ।
 
 
 
 
इसलिए उन्होंने स्वाभिमान रक्षा के लिये समाज को जाग्रत करने का संकल्प किया । सबसे पहले अपने साथी वकीलों का एक समूह बनाया और ऐसे भारतीयों के समर्थन में मुक़दमें लड़ना आरंभ किया । जिनपर पुलिस अत्याचार करती थी । और बिना किसी अपराध के जेल में ढूँस देती थी । यह 1898 का वर्ष था । चापेकर बन्धुओं ने पूना में गवर्नर की हत्या कर दी थी। इस घटना की गूँज पूरे देश में हुई । चापेकर बन्धु गिरफ्तार हुये और उन्हें फांसी दे दी गई। उन्हीं दिनों तिलकजी भी गिरफ्तार किये गये । मुम्बई के वकीलों ने तिलक जी गिरफ्तारी का विरोध किया और चाफेकर बंधुओं पर मुकदमा चलाने के तरीके पर भी आपत्ति की । चाफेकर बंधुओं पर चला मुकदमा एक औपचारिकता था । श्यामजी और वकीलों के इस समूह ने महाराष्ट्र कांग्रेस से भी आपत्ति दर्ज कराने का आग्रह किया। काँग्रेस ने आवेदन तो दिया पर विरोध के लिये खुलकर आगे न आ सकी।
 
 
 
 
उन्हीं दिनों स्वामी श्रृद्धानंद मुम्बई आये । श्याम जी की उनसे भेंट हुई और संघर्ष की योजना बनी । इस योजना के अनुसार श्याम जी ने देशभर के उन संघर्षशील नौजवानों को संगठित करने का निर्णय लिया जो अपने स्तर पर स्थानीय तौर पर अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र अभियान चला रहे थे । इस अभियान के बंगाल, पंजाब और महाराष्ट्र तीन प्रमुख केन्द्र थे । श्याम जी ने पंजाब, बंगाल और पूना की यात्रा की उनके संपर्क साँझा किये । पंजाब के क्राँतिकारियों को जो संपर्क बंगाल और महाराष्ट्र से बना था उसमें श्यामजी की भूमिका महत्वपूर्ण थी । इतना करके वे पुनः लंदन रवाना हुये । वे लंदन मेंउन नौजवानों में स्वाभिमान संघर्ष की नींव रखना चाहते थे जिन्हें अंग्रेजों के अपमान जनक व्यवहार की आदत हो गई थी । उन्होनें लंदन में तीन काम आरंभ किये । एक लंदन में रहने वाले सभी भारतीयों को एक सूत्र पिरोने का, दूसरा लंदन में पढ़ाई करने वाले छात्रों के लिये छात्रावास का और तीसरा भारतीयों के मानवाधिकारों की रक्षा के लिये एक समाचारपत्र निकालने का । उन्होंने फरवरी 1905 को लंदन में "द इंडियन होम रूल सोसाइटी" नाम से एक संस्था का गठन किया । इसके गठन के लिये पहली बैठक उनके हाईगेट स्थित घर पर हुई । श्याम जी सोसायटी के संस्थापक अध्यक्ष बने । इस होमरूल सोसायटी का केन्द्र का नाम "इंडिया हाउस" रखा गया। जो 65, क्रॉमवेल एवेन्यू, हाईगेट में स्थित था । इसे एक छात्रावास का रूप दिया गया जिसमें । 25 छात्रों को रहने की व्यवस्था थी ।
 
 
 
 
इसका औपचारिक उद्घाटन 1 जुलाई को सोशल डेमोक्रेटिक फेडरेशन के हेनरी हाइंडमैन द्वारा हुआ । इस अवसर पर दादाभाई नौरोजी , लाला लाजपत राय , मैडम कामा, लंदन पॉज़िटिविस्ट सोसाइटी के श्री स्विनी और श्री हैरी, एसआर राणा , विनायक दामोदर सावरकर, वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय और लाला हरदयाल उपस्थित थे ये सभी रूप से जुड़ गये । इंडिया हाउस का सारा खर्च श्याम जी स्वयं उठाते थे । इंडिया हाउस भारतीयों की सभा संगोष्ठियों का केन्द्र बन गया था । इन सभाओं में भारत की स्वतंत्रता पर खुलकर बात होती । आगे चलकर भाई परमानन्द और बिट्ठलभाई पटेल भी इंडिया हाउस से जुड़ गये ।इसी वर्ष इंग्लैण्ड से उन्होंने एक मासिक समाचार-पत्र "द इण्डियन सोशियोलोजिस्ट" का प्रकाशन आरंभ किया, जिसे आगे चलकर जिनेवा से भी प्रकाशित किया गया। इंग्लैण्ड का यह इंडिया हाउस क्रान्तिकारी आँदोलन का प्रेरणा केन्द्र बन गया । अनेक क्राँतिकारी नौजवान उनके शिष्य बने इनमें क्रान्तिकारी मदनलाल ढींगरा और स्वातंत्र्यवीर सावरकर उनके प्रिय शिष्यों में थे। सावरकर जी ने श्यामजी के मार्गदर्शन में ही 1857 की क्रांति पर पुस्तक लेखन आरंभ किया था।
 
 
 
 
1906 में भारत में स्वदेशी आन्दोलन आरंभ हुआ । बंगाल में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी सहित अनेक आँदोलनकारी बंदी बनाये गये । इस पर इंडिया हाउस में सभा हुई और अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध निन्दा प्रस्ताव पारित किया गया । इसकी प्रतियाँ समाचार पत्रों को भी भेजीं गई। इसके साथ श्याम जी ने विभिन्न देशों और नगरों में जाकर संगोष्ठियों में भाग लेना आरंभ किया और अंग्रेज सरकार के विरुद्ध खुलकर बोलते । इसी कड़ी में होलबोर्न टाउन हॉल में आयोजित यूनाइटेड कांग्रेस ऑफ़ डेमोक्रेट्स की संगोष्ठी में पहुँचे । जिसमें वे भारतीय स्वाभिमान पर खुलकर बोले । इस पर उन्हें सराहना भी मिली। श्यामजी के आलेख न केवल उनके समाचार पत्र में अपितु आयरिश, जिनेवा और फ्रांस के कुछ समाचार पत्रों में भी छपने लगे । पर इंग्लैंड के समाचार पत्रों में उनकी गतिविधियों की आलोचना होने लगी । वे ब्रिटिश सरकार की नजर में चढ़े । उनकी गिरफ्तारी होती इससे पहले ही वे लंदन से निकल कर पेरिस पहुँचे । श्यामजी ने अपना मुख्यालय पेरिस बना लिया । इंडिया हाउस का प्रभार सावरकर जी ने संभाला । इंडिया हाउस की गतिविधियों में कोई अंतर न आया । श्यामजी 1914 तक पेरिस में रहे। और अपना क्रान्तिकारी अभियान चलाते रहे। ‘इंडियन सोशियोलॉजी’ के कुछ अंक पेरिस से प्रकाशित हुए ।
 
 
 
 
उनकी सक्रियता और क्राँतिकारी गतिविधियों के कारण उनपर पेरिस में भी नजर रखी जाने लगी। पूछताछ भी हुई । तब वे पेरिस छोड़कर जिनेवा आ गये । और जिनेवा में ही उन्होंने 30 मार्च 1930 को अपने जीवन की अंतिम श्वाँस ली। जिनेवा में रहने वाले भारतीयों ने उननका दाह संस्कार करके अस्थियाँ जिनेवा की सेण्ट जॉर्ज सीमेट्री में सुरक्षित रख दीं। कुछ दिनों बाद में उनकी पत्नी भानुमती कृष्ण वर्मा का भी निधन हो गया । उनकी अस्थियाँ भी उसी सीमेट्री में रख दी गयीं। उनके निधन के बहत्तर वर्ष बाद 22 अगस्त 2003 को गुजरात के तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी के अनुरोध पर स्विस सरकार ने श्यामजी और उनकी पत्नी भानुमती जी की अस्थियों को भारत भेज दीं। जब ये अस्थियाँ मुम्बई पहुँची तब मुम्बई से लेकर माण्डवी तक राजकीय सम्मान के साथ भव्य जुलूस के रूप में अस्थि-कलश गुजरात लाये गये। श्याम जी के जन्म स्थान पर क्रान्ति-तीर्थ बनाया गया और इसी परिसर में श्यामजी कृष्ण वर्मा स्मृतिकक्ष बनाकर अस्थियाँ संरक्षित की गई। यह मेमोरियल 13 दिसम्बर 2010 को राष्ट्र को समर्पित किया गया। कच्छ जाने वाले सभी देशी विदेशी पर्यटकों के लिये माण्डवी का "क्रान्ति-तीर्थ" एक महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल है।